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________________ ३२२ श्रीमद राजचन्द्र आप किसी भी प्रकारका उपाधिप्रसंग लिखते हैं, वह यद्यपि पढनेमे आता है, तथापि तत्सबन्धी चित्तनें कुछ भी आभास न पडनेसे प्राय उत्तर लिखना भी नहीं बन पाता, इसे दोष कहे या गुण कहे, परंतु क्षमा करने योग्य है । सासारिक उपाधि हमें भी कुछ कम नही है, तथापि उसमे निज भाव न रहनेसे उससे घबराहट उत्पन्न नहीं होती। उस उपाधिके उदयकालके कारण अभी तो समाधि गौणभावसे रहती है, और उसके लिये शोक रहा करता है । . ३३० लि० वीतरागभावके यथायोग्य । बबई, माघ, १९४८ किसनदास आदि जिज्ञासु, दीर्घकाल तक यथार्थ बोधका परिचय होनेसे बोधबीजकी प्राप्ति होती है, और यह बोधबीज प्रायनिश्चय सम्यक्त्व होता है । जिनेंद्र भगवानने बाईस प्रकार के परिषह कहे है, उनमे दर्शनपरिपह नामका एक परिषह कहा है, और एक दूसरा अज्ञानपरिषह नामका परिषह भी कहा है । इस दोनो परिषहोका विचार करना योग्य है, यह विचार करनेकी आपकी भूमिका है; अर्थात् उस भूमिका ( गुणस्थानक ) का विचार करनेसे किसी प्रकार आपको यथार्थ धैर्य प्राप्त होना सम्भव है । किसी भी प्रकारसे स्वय मनमे कुछ सकल्प किया हो कि ऐसी दशामे आयें अथवा इस प्रकारका ध्यान करें, तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, तो वह सकल्पित प्राय (ज्ञानीका स्वरूप समझमे आनेपर ) मिथ्या है, ऐसा मालूम होता है । यथार्थं बोधके अर्थका विचार करके, अनेक बार विचार करके अपनी कल्पनाको निवृत्तं करनेका ज्ञानियोने कहा है । 'अध्यात्मसार' का अध्ययन, श्रवण चलता है सो अच्छा है । अनेक बार ग्रन्थ पढ़नेकी चिता नही, परन्तु किसी प्रकारसे उसका अनुप्रेक्षण दीर्घकाल तक रहा करे ऐसा करना योग्य है । परमार्थ प्राप्त होनेके विषयमे किसी भी प्रकारकी आकुलता व्याकुलता रखना - होना - उसे ‘दर्शनपरिषह' कहा है । यह परिषह उत्पन्न हो यह तो सुखकारक है; परन्तु यदि धैर्यसे वह वेदा जाये तो उसमेसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होना सभव होता है । आप 'दर्शनपरिषह' मे किसी भी प्रकारसे रहते हैं, ऐसा यदि आपको लगता हो तो वह धैर्यसे वेदने योग्य है, ऐसा उपदेश है । आप प्रायः 'दर्शनपरिषह' मे है, ऐसा हम जानते है । किसी भी प्रकारकी आकुलताके बिना वैराग्यभावनासे, वीतरागभावसे, ज्ञानीमे परमभक्तिभाव से सत्शास्त्र आदिका और सत्सगका परिचय करना अभी तो योग्य है । परमार्थंसंबंधी मनमे किये हुए सकल्पके अनुसार किसी भी प्रकारकी इच्छा न करें, अर्थात् किसी भी प्रकार दिव्यतेजयुक्त पदार्थ इत्यादि दिखायी देने आदिकी इच्छा, मन कल्पित ध्यान आदि इन सब सकल्पोको यथाशक्ति निवृत्ति करें । 'शातसुधारस' मे कही हुई भावना और 'अध्यात्मसार मे कहा हुआ आत्मनिश्चयाधिकार ये वारवार मनन करने योग्य है, इन दोनोकी विशेषता मानें। 'आत्मा है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'आत्मा नित्य है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'आत्मा कर्ता है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'आत्मा भोक्ता है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, 'मोक्ष है' ऐसा जिस
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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