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________________ २५ वॉ वर्ष ३२३ जीवको सत्पुरुषको पहचान नही होती और उनके प्रति अपने समान व्यावहारिक कल्पना रहती है, यह जीवकी कल्पना किस उपायसे दूर हो, सो लिखियेगा । उपाधिका प्रसंग बहुत रहता है । सत्संगके बिना जी रहे है । बबई, माघ वदी ३०, रवि, १९४८ ३२८ “लेवेको न रही ठोर, त्यागोवेको नाहीं ओर । arat कहा उबर्यो जु, कारज नवीनो है !" स्वरूपका भान होनेसे पूर्णकामता प्राप्त हुई, इसलिये अब कुछ भी लेनेके लिये दूसरा कोई क्षेत्र नही रहा । स्वरूपका त्याग तो मूर्ख भी कभी करना नही चाहता, और जहाँ केवल स्वरूपस्थिति है, वहाँ तो फिर दूसरा कुछ रहा नही, इसलिये त्याग करना भी नही रहा। अब जब लेनादेना दोनो निवृत्त हो गये, तब दूसरा कोई नवीन कार्य करनेके लिये क्या बाकी रहा ? अर्थात् जैसे होना चाहिये वैसे हो गया । तो फिर दूसरा लेने-देनेका जजाल कहाँसे हो ? इसलिये कहते हैं कि यहाँ पूर्णकामता प्राप्त हुई । ३२९ बबई, माघ वदी, १९४८ कोई क्षणभरके लिये अरुचिकर करना नही चाहता । तथापि उसे करना पड़ता है, यह यो सूचित करता है कि पूर्व कर्म का निबंधन अवश्य है । अविकल्प समाधिका ध्यान क्षणभरके लिये भी नही मिटता । तथापि अनेक वर्षोंसे विकल्परूप उपाधिकी आराधना करते जाते हैं । जब तक ससार है तब तक किसी प्रकारको उपाधि होना तो सभव है, तथापि अविकल्प समाधिमे स्थित ज्ञानीको तो वह उपाधि भी अबाध है, अर्थात् समाधि ही है । इस देहको धारण करके यद्यपि कोई महान ऐश्वर्य नही भोगा, शब्दादि विषयोका पूरा वैभव प्राप्त नही हुआ, किसी विशेष राज्याधिकार सहित दिन नही बिताये, अपने माने जानेवाले किसी धाम व आरामका सेवन नही किया, और अभी युवावस्थाका पहला भाग चलता है, तथापि इनमेसे किसीकी आत्मभावसे हमे कोई इच्छा उत्पन्न नही होती, यह एक बडा आश्चर्य मानकर प्रवृत्ति करते हैं । और इन पदार्थों की प्राप्ति अप्राप्ति दोनो एकसी जानकर बहुत प्रकारसे अविकल्प समाधिका ही अनुभव करते हैं । ऐसा होनेपर भी वारवार वनवासकी याद आती है, किसी प्रकारका लोकपरिचय रुचिकर नही लगता, सत्सगमे सुरत बहा करती है, और अव्यवस्थित दशासे उपाधियोगमे रहते हैं । एक अविकल्प समाधिके सिवाय सचमुच कोई दूसरा स्मरण नही रहता, चिंतन नही रहता, रुचि नही रहती, अथवा कुछ काम नही किया जाता । ज्योतिष आदि विद्या या अणिमा आदि सिद्धिको मायिक पदार्थ समझकर आत्माको उसका स्मरण भी क्वचित ही होता है । उस द्वारा किसी वातको जानना अथवा सिद्ध करना कभी योग्य नही लगता, और इस बात किसी तरह अभी तो चित्तप्रवेश भी नही रहा । पूर्व निबन्धन जिस जिस प्रकारसे उदयमे आये उस उस प्रकार से ' ऐसा करना योग्य लगा है । अनुक्रमसे वेदन करते जाना, आप भी ऐसे अनुक्रममे चाहे जितने थोडे अंशमे प्रवृत्ति की जाय तो भी वैसी प्रवृत्ति करनेका अभ्यास रखिये और किसी भी कामके प्रसगमे अधिक शोकमे पड़नेका अभ्यास कम कीजिये, ऐसा करना या होना यह ज्ञानीकी भवस्थामे प्रवेश करनेका द्वार हे । १ कागज फट जानेसे अक्षर उड गये हैं ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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