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________________ २५ वॉ वर्ष ३२५ प्रमाणसे ज्ञात हो, और 'उसका उपाय है' ऐसा जिस प्रमाणसे ज्ञात हो, वह वारंवार विचारणीय है। 'अध्यात्मसार'मे अथवा चाहे किसी दूसरे ग्रन्थमे यह बात हो तो विचार करनेमे बाधा नही है । कल्पनाका त्याग करके विचारणीय है। जनक विदेहीकी बात अभी जाननेसे आपको लाभ नही है । सबके लिये यह पत्र है। ३३१ बबई, माघ, १९४८ वीतरागतासे, अत्यन्त विनयसे प्रणाम । भ्रातिवश सुखस्वरूप भासमान होते हैं ऐसे इन ससारी प्रसगो एवं प्रकारोमे जब तक जीवको प्रीति रहती है, तब तक जीवको अपने स्वरूपका भास होना असम्भव है, और सत्सगका माहात्म्य भी तथारूपतासे भासमान होना असभव है। जब तक यह ससारगत प्रीति अससारगत प्रीतिको प्राप्त न हो तब तक अवश्य ही अप्रमत्तभावसे वारवार पुरुषार्थको स्वीकार करना योग्य है। यह बात त्रिकालमे विसवादरहित जानकर निष्कामभावसे लिखी है। ३३२ ___ बबई, फागुन सुदी ४, बुध, १९४८ आरभ और परिग्रहका मोह ज्योज्यो मिटता है, ज्यो-ज्यो तत्सम्बन्धी अपनेपनका अभिमान मदपरिणामको प्राप्त होता है, त्यो-त्यो मुमुक्षता वढती जाती है। अनत कालसे परिचित यह अभिमान प्रायः एकदम निवृत्त नही होता। इसलिये तन, मन, धन आदि जिनमे ममत्व रहता है उन्हे ज्ञानीको अर्पित किया जाता है, प्राय ज्ञानी कुछ उन्हे ग्रहण नही करते, परन्तु उनमेसे ममत्वको दूर करनेका हो उपदेश देते हैं, और करने योग्य भी यही है कि आरम्भ-परिग्रहको वारवारके प्रसगमे पुन पुन विचार करक उनमे ममत्व न होने दे, तब मुमुक्षुता निर्मल होती है। ३३३ __ बबई, फागुन सुदी ४, बुध, १९४८ "जीवको सत्पुरुपकी पहचान नही होती, और उनके प्रति अपने समान व्यावहारिक कल्पना रहती हैं, यह जीवकी कल्पना किस उपायसे दूर हो ?' इस प्रश्नका यथार्थ उत्तर लिखा है। ऐसा उत्तर ज्ञानी अथवा ज्ञानीका आश्रित मात्र जान सकता है, कह सकता है, अथवा लिख सकता है। मार्ग कैसा ही इसका जिन्हे ज्ञान नही है, ऐसे शास्त्राभ्यासी पुरुष उसका यथार्थ उत्तर नही दे सकते, यह भी यथार्थ ही है। 'शुद्धता विचारे ध्यावे', इस पदके विषयमे अब फिर लिखेंगे। अबारामजीकी पुस्तकके विषयमे आपने विशेष अध्ययन करके जो अभिप्राय लिखा, उसके विषयमे अव फिर बातचीतके समय विशेष बताया जा सकता है। हमने उस पुस्तकका बहुतसा भाग देखा है, परतु सिद्धातज्ञानसे असगत बातें लगती है, और ऐसा ही है, तथापि उस पुरुषकी दशा अच्छी है, मार्गानुसारी जेसो है ऐसा तो हम कहते है । हमने जिसे सैद्धातिक अथवा यथार्थ ज्ञान माना है वह अति-अति सूक्ष्म है, परन्तु वह प्राप्त हो सकनेवाला ज्ञान है । विशेष अब फिर । चित्तने कहे अनुसार नहीं किया इसलिये आज विशेष नही लिखा गया, सो क्षमा कीजियेगा। परम प्रेमभावसे नमस्कार प्राप्त हो। १ श्री सौभाग्यभाई द्वारा दिया गया उत्तर-"निप्पक्ष होकर सत्सग करे तो सत् मालूम होता है, और फिर सत्पुरुषका योग मिले तो उसे पहचानता है और पहचाने तो व्यावहारिक कल्पना दूर होती है। इसलिये पक्षरहित होकर सत्सग करना चाहिये । इस उपायके सिवाय दुसरा कोई उपाय नहीं है । वाकी भगवत्कृपाकी वात और है।"
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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