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________________ J = " 2 - 377-67 का A FIL مرار म T कले ,, मि 56 d P 5-2 Tað fara og avgust 1.2. ܕܝ ܪ २५ वाँ वर्ष श्री ܡܝ ݂ܬ ܀ नाम 75 C FD L 15 Sa "" २९८. १. ववाणिया, कार्तिक सुदी ४, गुरु, १९४८, काल विपम आ" गया है । सत्सगका योग नही है, और " वीतरागता विशेष हैं, इसलिये कही भी चैन नहीं है, अर्थात् मन विश्राति नही पाता । अनेक प्रकारकी विडंबना तो हमे नही है, तथापि, निरंतर सत्सग नही है, यह बडी विडबना है | लोकसग नहीं रुचता । 45137 74 7 در و মড औ 4G 1652719 २९९ वाणिया, कार्तिक सुदी ७ रवि, १९४८ चाहे जिस - क्रिया, जप, तप अथवा शास्त्राध्ययन करके भी एक ही कार्य सिद्ध करता है, वह यह कि जगतकी विस्मृति करना और सत्के चरण में रहना । - 4 F और इस एक ही लक्ष्य में प्रवृत्ति करनेसे, जीवको स्वय क्या करता योग्य है, और क्या... करताअयोग्य है यह समझमे आता है, समझमे आता रहता है । यह लक्ष्य सन्मुख हुए बिना जप, तप, ध्यान या दान किसीकी यथायोग्य सिद्धि नही है, और तब तक ध्यान आदि अनुपयोगी जैसे है । 71-45 न इसलिये इनमेसे जो जो साधन हो सकते हों वे सब एक लक्ष्य सिद्ध होनेके लिये करें कि जिस, लक्ष्यको हमने ऊपर बताया है । जप, तप आदि कुछ निषेध करने योग्य नहीं है, तथापि वे सब एक लक्ष्य के लिये है, और, उस लक्ष्य के बिना जीवको सम्यक्त्वसिद्धि नही होती । अधिक क्या कहे ? जो ऊपर कहा है उतना ही समझने के लिये सभी शास्त्र प्रतिपादित हुए है । 5 P 6. iffmai कुछ - ちゅう ३०० . - ., ववाणिया, कार्तिक सुदी८, सोम, १९४८ ॐ 177 2. R 17.1 5 77 जाएँ दो दिन पहले पत्र प्राप्त हुआ है । साथके चारो पत्र पढ़े हैं मगनलाल, कीलाभाई, खुशालभाई इत्यादिकी आपद आने की इच्छा है, तो वैसा करनेमे, कोई बाधा नहीं है । "तथापि इस वातसे दूसरे मनुष्यो को हमारी प्रसिद्धिका - पता चलता है कि इनवे समागमके लिये - लोग जाते है, यह यथासंभव कम प्रसिद्धिमे आना चाहिये । वैसी प्रसिद्धि अभी हमे प्रतिबधरूप try होती है । कीलाभाईको सूचित करें कि आपने पत्रेच्छा की परन्तु उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नही हो सकेगा । कुछ पूछने की इच्छा हो तो वे आणदमे हर्षपूर्वक पूछें । 13
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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