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________________ २४ वाँ वर्ष ३११ है । जीवको अपनी इच्छासे किये हुए दोषको तीव्रतासे भोगना पड़ता है, इसलिये चाहे जिस सग - प्रसगमे भी स्वेच्छासे अशुभभावसे प्रवृत्ति न करनी पडे ऐसा करें । २९३ वाणिया, आसोज वदी १३, शुक्र, १९४७ श्री सुभाग्य, स्त्रमूर्तिरूप श्री सुभाग्य, हमे रहकी वेदना अधिक रहती है, क्योकि वीतरागता विशेष है, अन्य सगमे बहुत उदासीनता है, परन्तु हरीच्छा अनुसार प्रसंगोपात्त विरहमे रहना पडता है, जिस इच्छाको सुखदायक मानते हैं, ऐसा नही है । भक्ति और सत्सगमे विरह रखनेकी इच्छाको सुखदायक माननेमे हमारा विचार नही रहता । श्री हरिकी अपेक्षा इस विषयमे हम अधिक स्वतंत्र हैं । C २९४ बबई, १९४७ आत्तंध्यान करनेकी अपेक्षा धर्मध्यानमे वृत्तिको लाना ही श्रेयस्कर है । और जिसके लिये आर्त्तध्यान करना पड़ता हो वहाँसे या तो मनको उठा लेना अथवा तो उस कृत्यको कर लेना, जिससे विरक्त ।। 17: गण आणि 1 105 नेली + जीवके लिये स्वच्छद बहुत बडा दोष है। यह जिसका दूर हो गया है, उसे मार्गके क्रमकी प्राप्ति बहुत सुलभ है। उ Ingvars machos २९५ बबई, १९४७ - यदि चित्तकी स्थिरता हुई हो तो ऐसे समयमे सत्पुरुषोके गुणोका चिंतन, उनके वचनोका मनन, उनके चारित्रका कथन, कीर्तन, और प्रत्येक चेष्टा की पुनः पुनः निदिध्यासन हो सकता हो तो 'मनका निग्रह अवश्य हो सकता है, और मनको जीतने की एकदम सच्ची कसोटी यह है। ऐसा होनेसे ध्यान क्या है यह समझमें आयेगा । परन्तु उदासीनभावसे चित्तस्थिरताके समय उसकी विशेषता मालूम पड़ेगी । 1, A 5 बबई, १९४७ २९६ १, उदयको अवध, परिणामसे, भोगा जाये तो ही उत्तम है। ] ।' - २ दो तमे रही हुई, जो वस्तु, वह छेदने से छेदी नही जाती, भेदनेसे, भेदी नही जाती । Tatae, verde. . i 5 67 २९७ बबई, १९४७ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्तिमार्ग आराधन करने योग्य हैं । परन्तु विचारमार्ग के योग्य जिसकी सामर्थ्य नही है, उसे उसे मार्गका उपदेश करना योग्य नही है, इत्यादि जो लिखा वह यथायोग्य है। तो भी उस विषयमे कुछ भी लिखना अभी चित्तमे नही आ सकता । T श्री नागज।स्वामी द्वारा केवलदर्शन सम्बन्धी प्रदर्शित ' जो आशंका लिखी है उसे पढ़ा है । दूसरे अनेक प्रकार समझने के बाद उस प्रकारकी आशंका शात होती है अथवा प्रायः वह प्रकार समझने योग्य होता है। ऐसी आशंकाको अभी सक्षिप्त करके अथवा उपशात करके विशेष निकटवर्ती आत्मार्थंका विचार करना योग्य है । you' us full : -15. " १. देखें आक ११८ । ↓ بار * -श्री आचारांग ' ि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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