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________________ .:२५,वाँ वर्ष, 1- r ", "- - - - -३०१ , ववाणिया, कार्तिक सुदी, सोम, १९४८ स्मरणीय मंति श्री सुभाग्य,... ... -- . . . . जात आत्मरूप माननेमे आये, जो हो वह योग्य ही माननेमे आये, परके दोष देखनेमे न आये, 'अपने गुणोकी उत्कृष्टता सहन करनेमे आये तो ही इस संसारमे रहना योग्य है, दूसरी तरहसे नही। वि० रायचदके यथायोग्य। ३०२ ववाणिया, कार्तिक सुदो १३, शनि, १९४८ * . . . . . . . . . "सत्यं परं धीमहि । । -.. " ... - ( ऐसा जो ) परम सत्य, उसका हम ध्यान करते हैं। .... " यहाँसे कार्तिक वदी ३, बुधके दिन विदा होनेकी इच्छा है। । पूज्य श्री दीपचदजी स्वामीको वदना करके विज्ञापन करें कि यदि उनके पास कोई दिगम्बर संप्रदायका ग्रंथ मागधी, संस्कृत या हिन्दीमे हो और वह पढ़ने के लिये दिया जा सके तो लेकर अपने पास रखे, अथवा तो वैसा कोई अध्यात्म ज्ञानग्रन्थ हो तो उस विषयमे पूछ । उनसे यदि कोई वैसा ग्रथ प्राप्त । उन्हें वह मोरबीसे पांच-सात दिनमें वापस मिल जाये, ऐसी योजना करेंगे। मोरबीमे दूसरी उपाधिको दूर करनेके लिये यह ग्रथंपच्छा की है। यहाँ कुशलता है .. । ___ 7, firo 52 53 ३०३ वाणिया, कार्तिक सुदी १३, शनि, १९४८ - यहाँसे कार्तिक वदी ३ को निकलनेका विचार है। संभवतः मोरबीमे पाँच-सात दिन लग जायेंगे। तथापि व्यावहारिक प्रसग हैं इसलिये आपका आना योग्य नहीं है। आणदमे समागमकी इच्छा रखिये। मोरबीकी निवृत्त करें।. - और एक बात स्मरणमे रखनेके लिये लिखते हैं, कि परमार्थप्रसंगसे अभी हमने प्रगटरूपसे किसोका भी समागम करना नही रखा है। ईश्वरेच्छा ऐसो लगती है। सब भाइयोको यथायोग्य | दिगंबर ग्रंथ-मिले-तो ठीक, नही तो कोई बात नही। अप्रगट सत् । . .३०४ . , ववाणिया, कार्तिक सुदी, १९४८ ART000517 यथायोग्य वदन स्वीकार करें। समागममे दो चार कारण आपको खुले दिलसे बात नही करले देते । अनन्तकालकी वृत्ति, समागमियोकी वृत्ति और लोकलज्जा प्राय. ये सब उन कारणोकी जड़ है। ऐसे कारणोसे कोई भी प्राणी कटाक्षका पात्र बने ऐसी मेरी दशा प्राय नहीं रहती। परन्तु अभी मेरी दशा कोई भी लोकोत्तर बात करते हुए झिझकती है अर्थात् मनका मेल नही बैठता। 'परमार्थ मौन' नामका एक कर्म अभी उदयमे भी रहता है, जिससे बहुत प्रकारका मौन भी अगीकार किया है, अर्थात् परमार्थसम्बन्धी वातचीत प्राय नही की जाती। ऐसा उदयकाल है । क्वचित् साधारण मार्गसम्बन्धा बातचीत की जाती है, नही तो-इस विषयमे वाणीसे और परिचयसे मौन और , शून्यता ग्रहण किये गये हैं। जवे तक योग्य समागम होकर चित्त ज्ञातो पुमुपके स्वरूपको नही जान सकता, १ श्रीमद् भागवत, स्कंघ १२, अध्याय १३, श्लोक १९ .
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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