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________________ २४ वाँ वर्ष ए, पांचमे अंगे कहो, उपदेश केवळ निर्मळो. जिनवर कहे के ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥३॥ केवळ नहीं ब्रह्मचर्यथी, · · ... : केवळ नहीं संयम थकी, पण ज्ञान केवळथी कळो, जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥ ४॥ शास्त्रो विशेष सहित पण जो, जाणियु निजरूपने, का तेहवो आश्रय करजो, भावथी साचा मने ....: तो ज्ञान तेने भाखियु, जो सम्मति आदि, स्थळो,, , , , , , T:- "जिनवर कहे. छ, ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥५॥ आठ समिति जाणीए जो, ज्ञानीना परमार्थयो, तो ज्ञान भाख्यु तेहने, “अनुसार ते मोक्षार्थथी;.. निज कल्पनाथी कोटि शास्त्रो, मात्र मननो आमळो, ' . जिनवर कहे' छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥६॥", " . चार वेद पुराण आदि शास्त्र सौ मिथ्यात्वनां, , Katri श्रीनन्दीसत्रे भाखिया छे, भेद ज्यां सिद्धान्तना; - : :. : पण' ज्ञानीने ते ज्ञान भास्यां, ए ज ठेकाणे ठरो, . .जिनवर कहें छे ज्ञान, तेने, सर्व भव्यो सांभळो॥७॥ । यह जीव है ओर यह देह है ऐसा भेदज्ञान यदि नही हुआ है"अर्थात जड देहसे भिन्न चैतन्यस्वरूप अपने आत्माका जब तक प्रत्यक्ष अनुभव नही हुआ है तब तक पच्चक्खाण' या व्रत आदिका अनुष्ठान मोक्षसाधकं नही होता । आत्मज्ञानके अनतर हो यथार्थ त्याग होता है और उससे मोक्षसिद्धि होती है। पांचवें अग श्री भगवतीसूत्रमें इस विषयका निर्मल बोध दिया है । जिनवर जिसे ज्ञान कहते हैं उसे सुनें ॥ ३ ॥ - '' पॉर्च महाव्रतोमें ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ व्रत है, परन्तु केवल उससे भी ज्ञान नहीं होता । उपलक्षणसे पांच महाव्रतोको घारणकर सर्व विरतिरूप सयम ग्रहण करनेसे भी ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती। देहादिसे भिन्न केवल शुद्ध आत्माके ज्ञानको ही भगवानने सम्यग्ज्ञान, कहा है, जिनवर जिसे ज्ञान कहते है उसे सुनें ।। ४ । , शास्त्रोंके विशिष्ट एव विस्तृत ज्ञानसहित जिसने अपने-स्वरूपको जान लिया है, अनुभव किया है वह साक्षात् ज्ञानी है और उसका ज्ञान यथार्थ सम्यग्ज्ञान है । और वैसा अनुभव जिसे नही हुआ है परन्तु जिसे उसको तीव्र इच्छा हे और तदनुसार जो सच्चे. मनसे मात्र आत्मार्थके लिये अनन्य प्रेमसे वैसे ज्ञानीकी आज्ञाका, आराधन करनेमें सलग्न रहता है वह भी शीघ्र ज्ञानप्राप्ति कर सकता है और उसका ज्ञान भी- यथार्थ माना गया है। सन्मतितर्कः आदि शास्त्रोमें इस वातका प्रतिपादन किया है। ज्ञानीसे ही ज्ञानप्राप्ति होती है इसीको भगवानने ज्ञान कहा है। जिनवर जिसें ज्ञान कहते हैं उसे सुनें ॥५॥ .., . , यदि आठ ममिति, (तीन गुप्ति और पांच समिति) का रहस्य ज्ञानीसे समझा जाये तो वह मोक्षसाधक होनेसे ज्ञान कहा जाता है। परन्तु अपनी कल्पनासे करोडो शास्त्रोका ज्ञान भी वीजज्ञान किंवा स्वस्वरूपज्ञानरहित होनेसे अज्ञान हो है । और वह ज्ञान मात्र अहका सूचक एव पोषक है । जिनवर जिसे ज्ञान कहते हैं उसे : सुनें ॥ ६ ॥ श्री नदीसूत्रमें जहां सिद्धातके भेद बताये हैं वहां चार वेद तया पुराण आदिको मिथ्यात्वके शास्त्र कहा है। किन्तु वे भी आत्मज्ञानीको सम्यग्दृष्टि होनेसे ज्ञानरूप प्रतीत होते हैं। इसलिये आत्मज्ञानीकी उपासना ही श्रेयस्कर है । जिनवर जिसे ज्ञान कहते हैं उसे""सुनें ॥ ७॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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