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________________ ३०४ श्रीमद राजचन्द्र व्रत नहीं पचखाण नहि, नहि त्याग वस्तु कोईनो, * महापद्म तीर्थंकर यशे, श्रेणिक ठाणंग जोई. लो; छेद्यो अनन्ता ( प्रश्न ) 'फलदय झीश खादी इश्री' ? ओये झोश, झषे खा ? थेपे फयार खेय ? i प्रथम जीव क्यांशी आव्यो अन्ते जीव जशे क्यां तेने पमाय केम ? 4 Fas भागल }', तरह दूसरे शब्द भी बन जाते हैं। २- पहले जीव कहाँसे आया ? अन्तमे जीव कहाँ जायेगा उसे कैसे पाया जाये ? अन्तिम स्पष्टीकरण यह है कि अब इनमेसे जो जो प्रश्न खड़े हों उनका विचार करें तो उत्तर मिल जायेगा, अथवा हमे पूछ लें तो स्पष्टीकरण कर देंगे । (ईश्वरेच्छा होगी तो । ) ... - 17 M २६९ वाणिया, भाद्रपद वदी ३, सोम, १९४७ ईश्वरेच्छा होगी तो प्रवृत्ति होंगी, और उसे सुखदायक मान लेंगे, परन्तु मनमाने - सत्संगके बिना 'कालक्षेप होना दुष्कर' है'। मोक्षकी अपेक्षा हमें सतकी चरणसमीपता बहुत प्रिय है, परन्तु उस हरिकी इच्छाके आगे हम दीन हैं । पुनः पुन. आपकी स्मृति होती है । 37 प 3 D २७० कु P 1. ॥ ८ ॥ राळज, भाद्रपद, १९४७ Magi ( उत्तर ) "आत्रल' 'नायदी (ब्लीयथ् फुलुसोध्यययांदी ।) झषे रा , हघुलुदी । " अक्षर धामी ( श्रीमत् पुरुषोत्तममांथी ।) जशे त्यां । सद्गुरुथी । 2 T ए ॐ सत् ज्ञान वही कि अभिप्राय एक ही हो; थोडा अथवा बहुत प्रकाश, परन्तु प्रकाश एक ही है शास्त्रादिके ज्ञानसे निबटारा नहीं है परन्तु अनुभव ज्ञानसे निबटारा है । य ग पीक संर } 1361ery wes is fm कला ं श्रेणिक महाराजने अनाथी मुनिसे समकित प्राप्त किया । " तथारूप पूर्व प्रारसे व थोडा भी व्रत पच्चक्खाण 7, PS They या त्याग न कर सके । फिर भी उस समकित के प्रतापसे वे आगामी चौबीसोर्मे महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर होकर अनेक जीवोका उद्धार करके परमपद' मोक्षको प्राप्त करेंगे, ऐसा' स्थानागसूत्रमें उल्लेख हैं। छेदन किया अनत "॥८॥ १. यहाँ प्रश्न और उत्तर दोनो दिये हैं। पहला शब्द 'फ्लदय' है' जिसका मूल 'प्रथम' शब्द है । "इस प्रथम शब्दसे 'फ्लदय इस तरह बनता है - मूल व्यञ्जन अक्षरोके पीछेका एक-एक अक्षर लिया जाये । जैसे पु के पीछे फ्, र के पीछे ल्, थ् के पीछे द्, म के पीछे ये लें । इस तरह अक्षर लेनेसें 'प्रथम' से 'फ्लदय' बन जाता - T अनुवादक' > वाणिया, भादो वदी ४, मंगल, १९४७ ܐ, 15- अक्षर घामसे (श्रीमत् 'पुरुषोत्तममेसें ।) वहीं जायेगा सद्गुरुसे ?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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