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________________ ३०२ श्रीमद् राजचन्द्र मूळ द्रव्य उत्पन्न नहि, नहीं नाश पण तेम। अनुभवथी ते सिद्ध छे, , भाखे जिनवर एम ॥९॥ होय तेहनो नाश, नहि, नही तेह नहि होय। । 11. एक, समय ते सौ ,समय, भेदः अवस्था जोय ॥१०॥ (२) 'परम पुरुष प्रभु सद्गुरु, परम ज्ञान सुखधाम । . जेणे आप्यु भान' निज, तेने "सदा प्रणाम ॥१॥ x राळज, भाद्रपद, १९४७ .. .( हरिगीत ) ", । * जिनवर कहे छे. ज्ञान तेने सर्व भव्यो सांभळो। जो होय पूर्व भणेल नव पण, जीवने जाण्यो नहीं, तो सर्व ते अज्ञान भाड्यु, साक्षी, छे आगम अही। . ए पूर्व सर्व कह्या विशेष, जीव करवा निर्मळो, "जिनवर कहे 'छे जान तेने, सर्व, भव्यो सांभळो ॥१॥ नहि ग्रंथमाही ज्ञान भाख्यं, ज्ञान नहि कविचातुरी, नहि मंत्र तंत्रो ज्ञान दाख्या, ज्ञान नहि भाषा ठरी। नहि अन्य स्थाने ज्ञानं भाख्यु, ज्ञान ज्ञानोमां कळो, " *जिनवर 'कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो साभळो ॥२॥.. iif. . ;आ जीव ने,आ.; देह एवो, भेद जो भास्यो नहीं; - , --:.,) - पचखाण कीयां त्यां सुधी; मोक्षार्थ ते भाख्यां नहीं P a ti -7 इस विश्वमें जीव, पुद्गल आदि छः मूल द्रव्योको किसीने उत्पन्न नहीं किया है। अनादिसे स्वयसिद्ध है, और इनका कभी नाश भी नही होगा। यह सिद्धात अनुभवसिद्ध है ऐसा जिन भगवानने कहा है॥९॥ 192 * * rais जिन द्रव्योंका अस्तित्व है उनको नाश'कभी संभव नहीं है, और जो द्रव्य पदार्थ नहीं है, उसकी उत्पत्ति सभव नही है । जिस द्रव्यका अस्तित्व एक समयके लिये है उसको अस्तित्व' सो समय अर्थात् सदाके लिये है। परन्तु मात्र द्रव्यफी भिन्न-भिन्न अवस्थाएं बदलती रहती है और म्लत उसका नाश कदापि नही होता ॥ १४ ॥ गन(२) परम पुरुष"सद्गुरु भगवान परम ज्ञान तथा सुखके घाम हैं । "जिन्होने 'इस- पामरको अपने स्वरूपका भान करानेका परम अनुग्रह किया, उन करुणामति सद्गुरुको परम 'भक्तिसे' प्रणाम करता है॥१॥ Pri" / i:55 * भावार्थ-जिनवरं जिसे 'ज्ञान कहते है। उसे हे सर्व भव्यजनो आप ध्यानपूर्वक सुनें। यदि जीवने अपने आत्मस्वरूपको नही जाना, फिर चाहे उसने नव पूर्व जितना शास्त्राभ्यास किया हो तो उस सारे ज्ञानको आगममें अज्ञान ही कहा है अर्थात् आत्मतत्त्वके वोधके विना 'समस्त शास्त्राभ्यास' व्यर्थ ही है । भगवानने पूर्व आदिका ज्ञान विशेषतः इसलियों प्रकाशित किया है कि जीव" अपने अज्ञान एवं रागद्वेषादिको दूर कर अपने निर्मल आत्मतत्त्वको प्राप्तकर कृतकृत्य हो जाय। जिनवर जिसे ज्ञान कहते है उसे "सुनें ।। १| ज्ञानको किसी अन्यमे नही बताया है। काव्यरचनारूप कविकी चतुराईमे भी ज्ञान नहीं है, अनेक प्रकारके मत्र, तत्र आदिकी साधना ज्ञान नही है, और भाषाज्ञान वाक्पटुता, वक्तृत्व आदि भी ज्ञान नही है और किसी अन्य स्थानमें ज्ञान नही है । ज्ञानकी प्राप्ति तो ज्ञानीसे ही होती है। जिनवर जिसे ज्ञान कहते है उसे सुर्ने॥२॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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