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________________ २३० श्रीमद् राजचन्द्र ___ अन्तर्मुहूर्त अर्थात् दो घडीके भीतरका कोई भी समय ऐसा साधारणत अर्थ होता है। परन्तु शास्त्रकारकी शैलीके अनुसार इसका अर्थ ऐसा करना पड़ता है कि आठ समयसे अधिक और दो घडीके भीतरका समय अन्तर्मुहुर्त कहलाता है। परन्तु रूढिमे तो जैसा पहले बताया है वैसा ही समझमे आता है; तथापि शास्त्रकारकी शैली ही मान्य है। जैसे यहाँ आठ समयकी बात बहुत लघुत्ववाली होनेसे स्थल स्थलपर शास्त्रमे नही बतायी है, वैसे आठ रुचकप्रदेशकी बात भी है ऐसा मेरा समझना है, और भगवती, प्रज्ञापना, स्थानाग इत्यादि शास्त्र उसकी पुष्टि करते हैं। फिर मेरी समझ तो ऐसी है कि शास्त्रकारने सभी शास्त्रोमे न होनेवाली भी कोई बात शास्त्रमे कही हो तो कुछ चिन्ताकी बात नही है। उसके साथ ऐसा समझें कि सब शास्त्रोकी रचना करते हुए उस एक शास्त्रमे कही हुई बात शास्त्रकारके ध्यानमे ही थी। और सभी शास्त्रोकी अपेक्षा कोई विचित्र बात किसी शास्त्रमे कही हो तो इसे अधिक मान्य करने योग्य समझें, कारण कि यह बात किसी विरले मनुष्यके लिये कही गयी होती है, बाकी तो साधारण मनुष्योके लिये ही कथन होता है। ऐसा होनेसे आठ रुचकप्रदेश निबंधन है, यह बात अनिषिद्ध है, ऐसी मेरी समझ है। बाकीके चार अस्तिकायके प्रदेशोके स्थलपर इन रुचकप्रदेशोको रखकर समुद्घात करनेका केवलीसम्बन्धी जो वर्णन है, वह कितनी ही अपेक्षाओसे जीवका मूल कर्मभाव नही है, ऐसा समझानेके लिये है। इस बातकी प्रसगवशात् समागममे चर्चा करें तो ठीक होगा। दूसरा प्रश्न- 'ज्ञानमे कुछ न्यून चौदह पूर्वधारी अनन्त निगोदको प्राप्त होते हैं और जघन्यज्ञानवाले भी अधिकसे अधिक पन्द्रह भवोमे मोक्षमे जाते हैं, इस बातका समाधान क्या है ?' इसका उत्तर जो मेरे हृदयमे है, वही बताये देता हूँ कि यह जघन्यज्ञान दूसरा है और यह प्रसग भी दूसरा है। जघन्यज्ञान अर्थात् सामान्यत किन्तु मूल वस्तुका ज्ञान, अतिशय सक्षिप्त होनेपर भी मोक्षके बीजरूप है, इसलिये ऐसा कहा है, और 'एक देश न्यून' चौदहपूर्वधारीका ज्ञान एक मूल वस्तुके ज्ञानके सिवाय दूसरा सब जाननेवाला हुआ, परन्तु देह देवालयमे रहे हुए शाश्वत पदार्थका ज्ञाता न हुआ, और यह न हुआ तो फिर जैसे लक्ष्यके बिना फेंका हुआ तीर लक्ष्यार्थका कारण नही होता वैसे यह भी हुआ। जिस वस्तुको प्राप्त करनेके लिये जिनेन्द्रने चौदह पूर्वके ज्ञानका उपदेश दिया है वह वस्तु न मिली तो फिर चौदह पूर्वका ज्ञान अज्ञानरूप ही हुआ। यहाँ 'देश न्यून' चौदह पूर्वका ज्ञान समझना । 'देश न्यून' कहनेसे अपनी साधारण मतिसे यो समझा जाये कि पढ पढकर चौदह पूर्वके अन्त तक आ पहुँचनेमे एकाध अध्ययन या वैसा कुछ रह गया और इससे भटके, परन्तु ऐसा तो नही है। इतने सारे ज्ञानका अभ्यासी एक अल्प भागके लिये अभ्यासमे पराभवको प्राप्त हो, यह मानने जैसा नही है। अर्थात् कुछ भाषा कठिन या कुछ अर्थ कठिन नही है कि स्मरणमे रखना उन्हे दुष्कर हो । मात्र मूल वस्तुका ज्ञान न मिला इतनी ही न्यूनता, उसने चौदह पूर्वके शेष ज्ञानको निष्फल कर दिया। एक नयसे यह विचार भी हो सकता है कि शास्त्र (लिखे हुए पन्ने) उठाने और पढने इसमे कोई अन्तर नही है, यदि तत्त्व न मिला तो, क्योकि दोनोने बोझ ही उठाया। जिसने पन्ने उठाये उसने कायासे बोझ उठाया, और जो पढ गया उसने मनसे बोझ उठाया। परन्तु वास्तविक लक्ष्यार्थके बिना उनकी निरुपयोगिता सिद्ध होती है ऐसा समझमे आता है। जिसके घरमे सारा लवण समुद्र है वह तृषातुरकी तृषा मिटानेमे समर्थ नहीं है, परन्तु जिसके घरमे एक मीठे पानीको 'वीरडी'' है, वह अपनी और दूसरे कितनोकी ही तृषा मिटानेमे समर्थ है, और ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए महत्व उसीका है, तो भी दूसरे नयपर अब दृष्टि करनी पड़ती है, और वह यह कि किसी तरह भी शास्त्राभ्यास होगा तो कुछ पात्र होनेकी अभिलाषा होगी, और कालक्रमसे पात्रता भी १. नदी या तालाबके जलविहीन भागमें पानीके लिये बनाई हुई गढ़ी ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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