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________________ २३ वा वर्ष २३१ लेगी और दूसरोको भी पात्रता देगा। इसलिये यहाँ शास्त्राभ्यासके निषेध करनेका हेतु नही है, परन्तु ल वस्तुसे दूर जाया जाये ऐसे शास्त्राभ्यासका निषेध करे तो एकान्तवादी नही कहलायेंगे। इस तरह सक्षेपमे दो प्रश्नोका उत्तर लिखा है। लिखनेको अपेक्षा वाचासे अधिक समझाना हो कता है। तो भी आशा है कि इससे समाधान होगा, और यह पात्रताके किन्ही भी अशोको बढायेगा, एकान्त दृष्टिको घटायेगा, ऐसी मान्यता है। अहो । अनन्त भवोंके पर्यटनमे किसी सत्पुरुषके प्रतापसे इस दशाको प्राप्त इस देहधारीको आप चाहते हैं, उससे धर्म चाहते हैं, और वह तो अभी किसी आश्चर्यकारक उपाधिमे पड़ा है | निवृत्त होता तो हुत उपयोगी हो पड़ता । अच्छा | आपको उसके लिये जो इतनी अधिक श्रद्धा रहती है उसका कोई मूल कारण हाथ लगा है ? उसपर रखी हुई श्रद्धा, उसका कहा हुआ धर्म अनुभव करनेपर अनर्थकारक तो ही लगेंगे? अर्थात् अभी उसकी पूर्ण कसौटी कोजिये, और ऐसा करनेमे वह प्रसन्न है, साथ ही आपको गोग्यताका कारण है, और कदाचित् पूर्वापर भी निशक श्रद्धा ही रहेगी, ऐसा हो तो वैसा ही रखनेमे कल्याण है, यो स्पष्ट कह देना आज उचित लगनेसे कह दिया है। आजके पत्रमे बहुत ही ग्रामीण भापाका पयोग किया है, तथापि उसका उद्देश एक परमार्थ ही है। आपके समागमके इच्छुक रायचन्द (अनाम) के प्रणाम । रायचन्द (जाना १४० मोरबी, द्वितीय भादो वदी ८, सोम, १९४६ प्रश्नवाला पत्र मिला । प्रसन्न हुआ । प्रत्युत्तर लिखूगा । पात्रता-प्राप्तिका प्रयास अधिक करें। १४१ ववाणिया, द्वितीय भादो वदी १२, शुक्र, १९४६ सौभाग्यमूर्ति सौभाग्य, व्यास भगवान कहते हैं 'इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा। भगवद्भक्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः॥ इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समदृष्टिसे देखनेवाले पुरुष भगवानकी भक्तिसे युक्त होकर भागवती गतिको प्राप्त हुए अर्थात् निर्वाणको प्राप्त हुए। ____ आप देखें, इस वचनमे कितना अधिक परमार्थ उन्होने समा दिया है ? प्रसगवशात् इस वाक्यका स्मरण हो आनेसे लिखा है । निरंतर साथ रहने देनेमे भगवानको क्या हानि होती होगी? आज्ञाकारी १४२ ववाणिया, द्वि० भादों वदी १३, शनि, १९४६ आत्माका विस्मरण क्यो हुआ होगा? धर्मजिज्ञासु भाई त्रिभुवन, बंबई। आप और दूसरे जो जो भाई मेरे पाससे कुछ आत्मलाभ चाहते हैं, वे सब लाभ प्राप्त करें यह मेरे अत.करणकी ही इच्छा है । तथापि उस लाभको देनेकी मेरी यथायोग्य पात्रतापर अभी कुछ आवरण है, १ श्रीमद्भागवत, स्कन्व ३, अध्याय २४, श्लोक ४७
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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