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________________ २३ वो वर्ष २२९ क्रोधादि कषायोका शात हो जाना, उदयमे आये हुए कषायोमे मदता होना, मोड़ी जा सके ऐसी आत्मदशा होना अथवा अनादिकालकी वृत्तियाँ शात हो जाना, यह 'शम' है। ___ मुक्त होनेके सिवाय दूसरी किसी भी प्रकारकी इच्छाका न होना, अभिलाषाका न होना, यह 'सवेग' है। जबसे यह समझ मे आया कि भ्रातिमे ही परिभ्रमण किया, तबसे अब बहुत हो गया, अरे जीव । अब ठहर, यह 'निर्वेद' है। जिनका परम माहात्म्य है ऐसे नि:स्पृह पुरुषोके वचनमे हो तल्लीनता, यह 'श्रद्धा' 'आस्था' है। इन सब द्वारा जीवोमे स्वात्मतुल्य बुद्धि होना, यह अनुकंपा है। ये लक्षण अवश्य मनन करने योग्य है, स्मरण करने योग्य हैं, इच्छा करने योग्य है, और अनुभव ___ करने योग्य हैं। अधिक अन्य प्रसगपर । वि० रायचदके यथायोग्य । १३६ ववाणिया, द्वितीय भादो सुदी १४, रवि, १९४६ आपका सवेग-भरा पत्र मिला । पत्रोसे अधिक क्या बताऊँ ? जब तक आत्मा आत्मभावसे अन्यथा अर्थात् देहभावसे व्यवहार करेगा; मैं करता हूँ, ऐसी बुद्धि करेगा, मै ऋद्धि इत्यादिसे अधिक हूँ यो मानेगा, शास्त्रको जालरूप समझेगा, मर्मके लिये मिथ्या मोह करेगा, तब तक उसकी शाति होना दुर्लभ है, यही इस पत्रसे बताता हूँ । इसीमे बहुत समाया हुआ है। कई स्थलोमे पढा हो, सुना हो तो भी इसपर अधिक ध्यान रखियेगा। , रायचद १३७ मोरबी, द्वितीय भादो वदी ४, गुरु, १९४६ पत्र मिला । 'शातिप्रकाश' नही मिला। मिलनेपर योग्य सूचित करूँगा। आत्मशातिमे प्रवृत्ति कीजियेगा। वि० रायचदके यथायोग्य । १३८ मोरबी, द्वितीय भादो वदी ६, शनि, १९४६ योग्यता प्राप्त करें। इसी प्रकार मिलेगी। १३९ मोरबी, द्वितीय भादो वदी ७, रवि, १९४६ मुमुक्षु भाइयो, कल मिले हुए पत्रको पहुँच पत्रसे दी है। उस पत्रमे लिखे हुए प्रश्नोका सक्षिप्त उत्तर नोचे यथामति लिखता हूँ आपका प्रथम प्रश्न आठ रुचकप्रदेश सम्बन्धी है। उत्तराध्ययन शास्त्रमे सर्व प्रदेशोमे कर्मसम्बन्ध बताया है, उसका हेतु यह समझमे आया है कि यह कहना उपदेशार्थ है। 'सर्व प्रदेशमे' कहनेसे, आठ रुचकप्रदेश कमरहित नहीं हैं, ऐसा शास्त्रकर्ता निषेध करते हैं, यो समझमे नही आता। असख्यातप्रदेशी आत्मामे जव मान आठ ही प्रदेश कमरहित है, तब असख्यातप्रदेशोंके सामने वे किस गिनतीमे है ? असख्यातके आगे उनका इतना अधिक लघव कि शास्त्रकारने उपदेशकी अधिकताके लिये यह वात अत करणमे रखकर बाहरसे इस प्रकार अपने किया, और ऐसी ही शैली निरन्तर शास्त्रकारकी है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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