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________________ २३ वाँ वर्ष १०८ हे जीव । तू भ्रम मत पड, तुझे हितकी बात कहता हूँ । अतरमे सुख है, बाहर खोजनेसे नही मिलेगा । अतरका सुख अतरकी समश्रेणीमे है, उसमे स्थिति होनेके लिये बाह्य पदार्थोंका विस्मरण कर, | २१५ बबई, फागुन, १९४६ आश्चर्य भूल | समश्रेणी रहना बहुत दुर्लभ है, निमित्ताधीन वृत्ति पुनः पुन चलित हो जायेगी, चलित न होने के लिये अचल गभीर उपयोग रख । यह क्रम यथायोग्यरूपसे चलता आया तो तू जीवनका त्याग करता रहेगा, हताश नही होगा, निर्भय होगा । भ्रम मत पड, तुझे हित की बात कहता हूँ । यह मेरा है, ऐसे भावकी व्याख्या प्रायः न कर । यह उसका है ऐसा न मान बैठ । इसके लिये ऐसा करना है यह भविष्य निर्णय न कर रख । इसके लिये ऐसा न हुआ होता तो सुख होता ऐसा स्मरण न कर । इतना इस प्रकारसे हो तो अच्छा, ऐसा आग्रह न कर रख । इसने मेरे प्रति अनुचित किया, ऐसा स्मरण करना न सीख । इसने मेरे प्रति उचित किया ऐसा स्मरण न रख । यह मुझे अशुभ निमित्त है ऐसा विकल्प न कर । यह मुझे शुभ निमित्त है ऐसी दृढता न मान बैठ । यह न होता तो मैं नही बंधता ऐसी अचल व्याख्या न कर । 1 पूर्वकर्म बलवान है, इसलिये ये सब प्रसग मिल गये ऐसा एकातिक ग्रहण न कर । पुरुषार्थकी जय नही हुई ऐसी निराशाका स्मरण न कर । दूसरे के दोषसे तुझे बधन है ऐसा न मान । अपने निमित्तसे भी दूसरेको दोष करते हुए रोक | तेरे दोषसे तुझे बंधन है यह सतकी पहली शिक्षा है । तेरा दोष इतना ही कि अन्यको अपना मानना, और अपने आपको भूल जाना । इन सबमे तेरा मनोभाव नही है इसलिये भिन्न भिन्न स्थलोमे तूने सुखकी कल्पना की है । है मूढ | ऐसा न कर यह तूने अपनेको हितकी बात कही । अतरमे सुख है । जगत मे ऐसी कोई पुस्तक या लेख या कोई ऐसा अपरिचित साक्षी तुझे यो नही कह सकता कि यह सुखका मार्ग है, अथवा आप ऐसा वर्तन करें अथवा सबको एक ही क्रमसे विचार आये; इसीसे सूचित होता है कि यहाँ कुछ प्रबल विचारधारा रही है । एक भोगी होनेका उपदेश करता है । एक योगी होनेका उपदेश करता है । इन दोनोमेसे किसे मान्य करेंगे ? दोनो किसलिये उपदेश करते हैं ?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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