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________________ २१४ श्रीमद राजचन्द्र ४. खोई । जे गायो ते सघळे एक, सकळ दर्शने ए ज विवेक । समजाव्यानी शैली करो, स्याद्वाद समजण पण मूळ स्थिति जो पूछो मने, तो सोपी दउ योगी प्रथम अंत ने मध्ये एक, लोकरूप अलोके जीवाजीव स्थितिने जोई, टळ्यो ओरतो शका एम ज स्थिति त्या नहीं उपाय, “उपाय कां नही ?" शंका जाय ॥३॥ ए आश्चर्य जाणे ते जाण, जाणे ज्या रे प्रगटे समजे बधमुक्तियुत जीव, नीरखी टाळे शोक बंधयुक्त जीव कर्म सहित, पुद्गल रचना कर्म पुद्गलज्ञान प्रथम ले जाण, नरदेहे पछी पामे जो के पुद्गलनो ए देह, तो पण ओर स्थिति त्यां समजण बीजी पछी कहीश, ज्यारे चित्ते स्थिर ५. खरी ॥१॥ कने । देख ||२॥ भाण । सदीव ॥४॥ खचीत । ध्यान ॥५॥ छेह । थईश ॥ ६ ॥ क्लेश । जहां राग अने वळी द्वेष, तहा सर्वदा मानो उदासीनतानो ज्यां वास, सकळ दुःखनो छे त्यां नाश ॥१॥ सर्व कालनु छे त्या ज्ञान, देह छता त्यां छे निर्वाण । भव छेवटनो छे ए दशा, राम धाम आवोने वस्या ||२|| - ४ भावार्थ- सब धर्मोमें एक परम तत्त्वका ही गुणगान है, और सब दर्शनोने भिन्न-भिन्न शैलीसे उसी परम तत्त्वका विवेचन किया हैं । परन्तु स्याद्वाद शैली सम्पूर्ण एव यथार्थ है ||१|| यदि आप मुझे मूल स्थिति अर्थात् लोकस्वरूप अथवा आत्मस्वरूपके बारेमें पूछते हैं तो मैं आपसे कहता हूँ कि आत्मज्ञानी योगी अथवा सयोगी केवलीने जो लोकस्वरूप बताया है वही यथार्थ एव मान्य करने योग्य है । अलोकाकाशमें जीव, पुद्गल आदि छः द्रव्यसमूहरूप लोक पुरुषाकारसे स्थित है और जो आदि, मध्य और अन्तमे अर्थात् तीन कालमें इसी रूपसे रहनेवाला है ॥२॥ उसमें जीवाजीवकी स्थितिको देखकर तत्सवधी जिज्ञासा शात हुई, व्याकुलता मिट गई और शका दूर हो गई । लोककी यही स्थिति है, उसे किसी भी उपायसे अन्यथा करनेके लिये कोई भी समर्थ नही है । उसे अन्यथा करनेका उपाय क्यो नही? इत्यादि शकाओका समाधान हो गया || ३ || जो इस आश्चर्यकारी स्वरूपको जानता है वह ज्ञानी है । और जब केवलज्ञानरूपी भानु (सूर्य) का उदय हो तभी इस लोकका स्वरूप जाना जा सकता है । फिर वह समझ जाता है कि जीव वध और मुक्ति से युक्त है । ससारकी ऐसी स्थिति देखकर हर्ष-शोक सदाके लिये दूरकर वह वीतराग सदैव समता सुखमें निमग्न हो जाता है ||४|| ससारी जीव बधयुक्त है और वह बघ पुद्गल वर्गणारूप कर्मोस हुआ है । अनत शक्तिशाली जीवको पुद्गल परमाणुओकी कर्मरूप रचनासे वघनकी अवस्थाको प्राप्त होकर ससारमे अनत दुखद परिभ्रमण करना पडता है । इसलिये पहले वह पुद्गलस्वरूपको जाने और अनुक्रमसे धर्मध्यान एव शुक्लध्यानमें एकाग्र होकर परम पुरुषार्थं मोक्षमें प्रवृत्ति करे । नरदेहमें ही ऐसा पुरुषार्थ हो सकता है ॥५॥ देह यद्यपि पुद्गलका ही है, तो भी भेदज्ञानको प्राप्त होकर आत्मज्ञानी ध्यानमें एकाग्र होकर अपूर्व आनदको प्राप्त होता है । जब चित्त सकल्प-विकल्पसे रहित होकर स्थिर होगा तब फिर दूसरा बोध दूँगा ||६|| ५ भावार्थ - जहाँ राग और द्वेष होते हैं वहाँ सदा क्लेश ही बना रहता है । जब जीव ससारसे उदासीन एव विरक्त हो जाता है तभी सर्व दु खोका अन्त आता है ॥ १।। उस दशामें जीव त्रिकालज्ञानी होता है और देह होते हुए भी देहातीत जीवन्मुक्तदशाका अनुभव होता है । चरमशरीरी जीव ही ऐसी दशाको प्राप्त करता है और वह आत्मस्वरूपमें रमण करता हुआ सदाके लिये परमपद मोक्षमे स्थित हो जाता है ॥२॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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