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________________ २१६ श्रीमद् राजचन्द्र दोनो किसको उपदेश करते है ? किसको प्रेरणासे करते है ? किसीको किसीका और किसीको किसीका उपदेश क्यो लगता है ? इसके कारण क्या हैं ? इसका साक्षी कौन है ? आप क्या चाहते हैं ? वह कहाँसे मिलेगा ? अथवा किसमे है ? उसे कौन प्राप्त करेगा? कहाँ होकर लायेंगे? लाना कौन सिखायेगा? अथवा सीखे हुए है ? सीखे हैं तो कहाँसे सीखे हैं ? अपुनर्वृत्तिरूपसे सीखे हे ? नही तो शिक्षण मिथ्या ठहरेगा। जीवन क्या है ? जीव क्या है ? आप क्या हैं ? आपकी इच्छानुसार क्यो नही होता ? उसे कैसे कर सकेंगे? वाधता प्रिय है या निरावाधता प्रिय है ? वह कहाँ कहाँ और किस किस प्रकारसे है ? इसका निर्णय करे। अतरमे सुख है। बाहरमे नही है। सत्य कहता हूँ। हे जीव । भूल मत, तुझे सत्य कहता हूँ। सुख अन्तरमे है, वह वाहर खोजनेसे नही मिलेगा। अतरका सुख अतरकी स्थितिमे है; स्थिति होनेके लिये बाह्य पदार्थोंका आश्चर्य भूल । स्थिति रहनी बहुत विकट है, निमित्ताधीन वृत्ति पुन पुन चलित हो जाती है । इसका दृढ उपयोग रखना चाहिये। इस क्रमको यथायोग्य निभाता चलेगा तो तू हताश नही होगा, निर्भय होगा। हे जीव । तू भूल मत । समय-समयपर उपयोग चककर किसीको रजित करनेमे, किसीसे रजित होनेमे अथवा मनकी निर्बलताके कारण तू दूसरेके पास मद हो जाता है, यह भूल होती है । इसे न कर। १०९ आत्मा नाममात्र है या वस्तुस्वरूप है? यदि वस्तुस्वरूप है तो किसी भी लक्षणादिसे वह जाना जा सकने योग्य है या नहीं?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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