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________________ २१३ सुज्ञ भाईश्री, २३ वॉ वर्ष १०६ बंबई, फागुन सुदी ८, १९४६ आपके दोनो पत्र मिले थे। आपने पत्रके लिये तृषा प्रदर्शित की उसे समय निकालकर लिख सकूँगा। व्यवहारोपाधि चल रही है । रचनाकी विचित्रता सम्यग्ज्ञानका उपदेश करनेवाली है। त्रिभोवन यहाँसे सोमवारको रवाना होनेवाले थे। आपको मिलने आ सके होगे । आप, वे और दूसरे आपके मडलके साथी धर्मकी इच्छा रखते हैं । यह यदि सबकी अतरात्माकी इच्छा होगी तो परम कल्याणरूप है। मुझे आपकी धर्म-अभिलाषाका औचित्य देखकर सतोष होता है। जनसमूहकी अपेक्षासे यह बहुत ही निकृष्ट काल है। अधिक क्या कहना? एक अतरात्मा ज्ञानी साक्षी है। _ वि. रायचदके प्रणाम-आपको और उन्हे । १०७ बबई, फागुन वदी १, १९४६ १. लोक पुरुषसस्थाने कह्यो, एनो भेद तमे कई लह्यो? एनु कारण समज्या काई, के समजाव्यानी चतुराई ? ॥१॥ शरीर परथी ए उपदेश, ज्ञान दर्शने के उद्देश। जेम जणावो सुणीए तेम, का तो लईए दईए क्षेम ॥२॥ ... २. शु. करवाथी पोते सुखी ? शु करवाथी पोते दुःखी ? पोते शु? क्याथी छे आप? एनो मागो शीघ्र जवाप ॥१॥ ३. ज्या शका त्या गण संताप, ज्ञान तहा शंका नहि स्थाप। प्रभुभक्ति त्या उत्तम ज्ञान, प्रभु मेळववा गुरु भगवान ॥१॥ गुरु ओळखवा घट वैराग्य, ते ऊपजवा पूर्वित भाग्य। - तेम नही तो कई सत्संग, तेम नही तो कई दु खरंग ॥ . १ भावार्थ-कमरपर दोनो हाथोको रखकर और पांवोको फैलाकर खड़े हुए पुरुषके आकारके समान लोकका स्वरूप बताया है । क्या आपने इसके रहस्यको समझा है ? इसके कारणको आपने समझा है ? अथवा तो उपमा द्वारा उसे समझानेकी चतुराई दिखाई हैं क्या? ॥१॥ "पिंडे सो ब्रह्माडे' की उक्ति यहां लागू होती है । 'पुरुष' अर्थात् मनुष्य शरीरपरसे लोक स्वरूपका बोध कराना है कि पुरुष अर्थात् आत्मा, जिसमें आत्माके ज्ञान-दर्शन गुण आत्माकार हैं, जिनमे लोकस्वरूप प्रतिभासित होता है; इसलिये अध्यात्मदृष्टिसे लोक्को पुरुषाकार कहा है ? इस तरह दोनो प्रकारसे जो प्रश्न होता है उसका समाधान आपको कुछ समझमें आता है ? इस विषयमें विचार करनेसे आपने जो समझा हो वह कहें तो सुनें और हमने जो कुछ समझा है उसे हम कहें । इस तरह परस्पर विचार-विनिमयसे आत्मकल्याण एव सुखशातिका आदानप्रदान करें ॥२॥ २ भावार्य-क्या करनेसे हम सुखी हैं ? क्या करनेसे हम दुखी है ? हम कौन है ? हम कहाँसे आये हैं ? इत्यादि प्रश्न अतरमें खड़े होते हैं । इनके यथार्थ उत्तर शोघ्र मागें ॥१॥ ३ भावार्य-जहां शका है वहां सताप समझें, और जहाँ ज्ञान है वहां का नही रहती । जहाँ प्रभुभक्ति है वहीं उत्तम ज्ञान है । प्रभप्राप्तिके लिये गुरु भगवानकी शरण ले ॥१॥ गुरुको पहचाननेके लिये हृदयमें वैराग्यको आवश्यकता है, और इस वैराग्यको उत्पत्तिके लिये पूर्वके पुण्यरूप भाग्यको आवश्यक्ता है। गदि भाग्योदय नहीं है तो कुछ सत्सगकी अपेक्षा है। यदि सत्सग नही है तो कुछ दुखरग देखनेपर यह आता है ॥२॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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