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________________ २३७ [२७] १३५ सम्यकदशाके पॉच लक्षण-शमादि २२८ | १५७ दैनदिनी१३६ देहभाव व अहभावमें आत्मशा ति दुर्लभ २२९ (१) आत्मदृष्टिसे सिद्धि २३५ १३७ आत्मशातिमें प्रवृत्ति करें २२९ (२) मोहनीय बलवत्तरतासे युवावस्था दुख१३८ योग्यता प्राप्त करें २२९ मय, फिर सुखका समय कौनसा ? १३९ आठ रुचकप्रदेश निर्बधन, शास्त्रकारकी शैली, अतरग विचारजन्य विवेकसे सुख २३५ अन्तर्मुहूर्तका अर्थ, समुद्घात वर्णनका हेतु, (३) छद्मस्थावस्थामें एक रात्रिकी महाप्रतिमा २३६ ज्ञानमें कुछ न्यून चौदह पूर्वधारी निगोदमें, (४) बहुत ध्यान देने योग्य नियम २३६ जघन्य ज्ञानी मोक्षमें, लवणसमुद्र व मीठी (५) आज मने उछरग अनुपम (काव्य) २३७ 'वीरडी', उपाधिग्रस्त इस देहधारीको पूर्ण (६) मनुष्यप्राणी-अधोवृत्तिवत्, ऊर्ध्वकसौटी करें २२९ गामीवत् २३७ १४० पात्रताप्राप्तिका प्रयास अधिक करें २३१ (७) परिचयीसे अनुरोध १४१ व्यासवचन-इच्छाद्वेषविहीनेन २३१ (८) सबेरेका समय समाधियुक्त बीता, १४२ आत्माका विस्मरण क्यो हुआ होगा? ___अखाजीके विचारोका मनन २३७ अपनी किसी न्यूनताको पूर्णता कैसे कहूँ ? २३१ (९) रेवाशकरजीके आनेपर क्रम २३७ १४३ पांच अभ्यास, निर्वाणमार्ग २३२ (१०) अपने अस्तित्वमे शका ठीक नही २३८ १४४ चैतन्यका अविच्छिन्न अनुभव प्रिय, 'तू तू तू (११) अद्भुत स्वप्नसे परमानद २३८ ही' का अस्खलित प्रवाह २३२ (१२) कलिकाल, धन्य व्यक्ति, सत्सग और १४५ आत्मनिवृत्ति कीजियेगा २३२ आत्मश्रेणि १४६ जो समझे वे सद्गतिको प्राप्त हुए, इस (१३) व्यवहारोपाधि ग्रहण करनेका हेतु, व्यक्तिके प्रति राग हितकारक कैसे होगा ? २३३ इसी क्रममें प्रवृत्ति कर, व्यवहारमें १४७ आत्मामें ही एकतान हुए बिना परमार्थमार्ग सबद्धके साथ बरताव, किसीके दोष की प्राप्ति बहुत ही असुलभ मत देख, आत्मप्रशसा न कर, १४८ सिद्धि किस प्रकारसे ? २३३ निवृत्तिश्रेणीका लक्ष्य प्रिय २३८ १४९ धर्मध्यान आदिकी वृद्धि करें २३३ (१४) विश्वाससे व्यवहार करके अन्यथा १५० मौतका औषध, कर्मको आज्ञा २३३ व्यवहार करनेवाले पछतावा १५१ वीर्यके भेद-प्रभेद, यह अर्थ समर्थ है । २३३ करते हैं। २३९ १५२ सर्वार्थसिद्धकी ध्वजासे बारह योजन दूर (१५) क्षुद्र और वाचाहीन जगत मुक्तिशिला, कबीर ध्वजासे आनद विभोर, (१६) दृष्टिकी स्वच्छता २३९ मूलपदका अति स्मरण, 'केवलज्ञान अब (१७) वीजज्ञान और केवलज्ञान, ज्ञानीपायेंगे 'रे' २३४ - रत्नाकर, नियतियां २३९ १५३ उदासीनता अध्यात्मजननी, ससारमें रहना, (१८) बंधे हुए मोक्ष पाते हैं, पाये हुए पदार्थमोक्ष होना कहना २३४ का स्वरूप शास्त्रोमें क्यो नही ? २४० १५४ बीजा साधन बहु कर्यां (काव्य) दूसरे बहुतसे १५७अ श्रीमान पुरुषोत्तम, उनका मूर्तिमान साधन किये, सद्गुरुफा योग, निश्चय, स्वरूप, उनकी भक्तिरुचि २४० सत्सग १५८ श्रीमान पुरुषोत्तम, श्री सद्गुरु और सत १५५ मात्र आत्मग्राह्य वाते, श्री मघशाप, श्री तीनों एक, विश्व और भगवान, जड और बखलाघ जीव दोनो भगवद्प, तत्त्वमसि, अहं १५६ महावीरका अगतदर्शन ग्रह्मास्मि २४० २३८ س २३३ २३९ २३५ २३५
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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