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________________ १७० मा [२८] १५९ सर्वरूपमे एक श्री हरि, श्री हरि निराकार, १७० आत्माने ज्ञान पा लिया, ग्रन्थिभेद हुआ, श्री पुरुषोत्तम साकार, हरि स्वेच्छासे ____ अतिम निर्विकल्प समाघि सुलभ, गुप्तता, बहुरूप २४१ वेदोदय तक गृहवास, तीर्थकरके किये १६० विश्व चैतन्याधिष्ठित, विशिष्टाद्वैत और अनुसार करनेकी इच्छा, उपशम और शुद्धाद्वैत, परमात्म-सृष्टि और जीव-सृष्टि, क्षपक श्रेणियां, आधुनिक मुनियोका सूत्रार्थ २५१ श्रवणके भी अयोग्य हरि और माया, जीव-परिभ्रमण, परमात्मा का अनुग्रह, ब्राह्मी स्थिति, सर्व ब्रह्म है, १७१ पत्र लिखनेका उद्देश, सग किसका? २५३ हरिका अश हूँ, केवल पद, वस्तु, अवस्तु २४१ । १७२ अनत कालसे स्वयको स्वविषयक भ्राति, १६१ सहजात्मस्वरूपीकी दुविधा, सभी दर्शनोमें परम रहस्य, ईश्वरके घरका मर्म पानेका शका, आत्माकी आस्था, आत्माकी महा मार्ग, छुटकारा कब? २५३ व्यापकता, मुक्ति-स्थान आदिमे शका ही १७३ व्यवहार-वधन न होता तो अपूर्व हितकारी शका, सद्गुरुका अयोग, दर्शनपरिषह, होता, मार्गमर्मदाता, २५४ जहर पी या उपाय कर । २४५ १७४ सत्सग बडेसे वडा साधन, सत्पुरुष-श्रद्धा २५५ १६२ शकारूप भंवरमे, यथेष्ट सत्समागमकी १७५ सत्सगकी वृद्धि करें। २५५ दुर्लभता, सामान्य सत्समागमी स्वविचार । १७६ ससार-परिभ्रमणका मुख्य कारण, दीनदशाके लिये प्रतिवन्धरूप बधुकी दृष्टि, अलख 'लय'मे आत्मा, १६३ कलिकालका स्वरूप, हमें भी कलियुगका अवधूत हुए, अवधूत करनेकी दृष्टि, भक्तिप्रसगी सग, जीवोकी वृत्ति विमुखता हमारा सग दुर्लभ २५५ परम दुख २४७ १७७ धर्मेच्छुकोके पत्र-प्रश्नादि वधनरूप, नित्य१६४ हे हरि । तेरा स्वरूप परम अचित्य, - नियम २५६ अद्भुत ! अनुग्रह कर २४७/ १७८ अभी धर्म बतानेके अयोग्य हूँ, पहले जिज्ञासुता २५६ २४ वां वर्ष १७९ उपशम भाव २५७ १६५ केवलबीजसपन्न, सर्व गुणसपन्न भगवानमे १८० दृढज्ञानप्राप्तिका लक्षण, अमरवरके भी अपलक्षण, केवलज्ञान तकका परिश्रम __ आनन्दका अनुभव, 'इस कालमें मोक्ष' व्यर्थ नही जायेगा, नि. शकता, निर्भयता का स्याद्वाद, अमृतके नारियलका पूरा वृक्ष २५७ आदिकी जरूरत, मोक्षकी नही २४८ | १८१ यहाँ तीनो काल समान, प्रवृत्ति मार्ग १६६ सत्पुरुषके एक-एक वाक्यमें एक-एक शब्दमें जीवोको सद्दर्शन करनेमें बाधक २५८ अनत आगम, मगलरूप वाक्य-मायिक १८२ निर्वाण मार्गके इच्छुक विरल, इस कालमें सुखको इच्छा छोडे विना छुटकारा नही, हमारा जन्म कारणयुक्त २५८ मायिक वासनाके अभावके लिये सद्गुरुको १८३ सत्पुरुषसेवा, जीवने अपूर्वको नही पाया, आत्मार्पण, मोक्षमार्ग आत्मामें है। २४८ पूर्वानुपूर्वकी वासनाके त्यागका अभ्यास, १६७ सत्य एक है, दो प्रकारका नही, व्यवहारमें क्रिया आदि सब आत्माको छुडानेके लिये २५८ रहते हुए वीतराग, कबीरपथीके सत्सगके १८४ आधार निमित्तमात्र, निष्ठा सवल करें २५९ लिये ज्ञानावतारकी प्रेरणा और शिक्षा २४९ / १८५ हृदय भर आया है २५९ १६८ किसे ससारका सग अच्छा नही लगता? । १८६ मार्गानुसारी होनेका प्रयत्न करें २५९ ग्यारहवें गुणस्थानकसे गिरे हुएका मोक्ष २५१ / १८७ अतिम स्वरूप समझमें आया है, परिपूर्ण १६९ अमिलापाके प्रति पुरुषार्थ करना २५१ . स्वरूपज्ञान तो उत्पन्न, कुनबी-कोली
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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