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________________ २२ वाँ वर्ष १९१ और सत्सग। उसकी दो श्रेणियाँ हैं-पर्युपासना और पात्रता। उसकी दो वर्धमानताएँ हैं-परिचय और पुण्यानुबधी पुण्यता | सबका मूल आत्माकी सत्पात्रता है। अभी इस विषयके संबधमे इतना ही लिखता हूँ। दयालभाईके लिये "प्रवीणसागर" भेज रहा हूँ। "प्रवीणसागर" को समझकर पढा जाये तो दक्षता देनेवाला ग्रन्थ है, नही तो अप्रशस्तछदी ग्रन्थ है। ववाणिया, वैशाख वदी १३, १९४५ अतिम समागमके समय चित्तकी जो दशा थी, वह आपने लिखी, सो योग्य है। वह दशा ज्ञात थी, ज्ञात है ऐसा मालूम हो तो भी यथावसर आत्मार्थी जीवको वह दशा उपयोगपूर्वक विदित करनी चाहिये, इससे जीवका विशेष उपकार होता है। ___ जो प्रश्न लिखे हैं उनका समागमयोगमे समाधान होनेकी वृत्ति रखना योग्य है, उससे विशेष उपकार होगा । इस ओर विशेष समय अभी स्थिति होना सभव नही है। ६४ ववाणिया बदर, ज्येष्ठ सुदी ४, रवि, १९४५ पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥ -श्री हरिभद्राचार्य आपका वैशाख वदी ६ का धर्मपत्र मिला। आपके विशेष अवकाशके लिये विचार करके उत्तर लिखनेमे मैंने इतना विलब किया है, जो विलब क्षमापात्र है । उस पत्रमे आप लिखते है कि किसी भी मार्गसे आध्यात्मिक ज्ञानका संपादन करना चाहिये. यह ज्ञानियोका उपदेश है, यह वचन मुझे भी मान्य है । प्रत्येक दर्शनमे आत्माका हो उपदेश है, और मोक्षके लिये सबका प्रयत्न है, तो भी इतना तो आप भी मान्य कर सकेंगे कि जिस मार्गसे आत्मा आत्मत्व-सम्यग्ज्ञानयथार्थदृष्टि प्राप्त करे वह मार्ग सत्पुरुषकी आज्ञानुसार मान्य करना चाहिये । यहाँ किसो भो दर्शनके लिये कुछ कहना उचित नही है, फिर भी यो तो कहा जा सकता है कि जिस पुरुषका वचन पूर्वापर अखण्डित है उसका उपदिष्ट दर्शन पूर्वापर हितकारी है । आत्मा जहाँसे 'यथार्थदृष्टि' अथवा 'वस्तुधर्म' प्राप्त करे वहाँसे सम्यग्ज्ञान सप्राप्त होता है यह सर्वमान्य है। आत्मत्व प्राप्त करनेके लिये क्या हेय, क्या उपादेय और क्या ज्ञेय है, इस विषयमे प्रसगोपात्त सत्पुरुषकी आज्ञानुसार आपके समक्ष कुछ न कुछ रखता रहूँगा। यदि ज्ञेय, हेय और उपादेयरूपसे किसी पदार्थको, एक भी परमाणुको नही जाना तो वहाँ आत्माको भी नहीं जाना । महावीरके उपदिष्ट 'आचाराग' नामके एक सैद्धातिक शास्त्रमे ऐसा कहा है कि-जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ। अर्थात जिसने एकको जाना उसने सबको जाना और जिसने सबको जाना उसने एकको जाना। यह वचनामत ऐसा उपदेश करता है कि कोई एक आत्मा जव जाननेका प्रयत्न करेगा, तव सबको जाननेका प्रयत्न होगा, और सबको जाननेका प्रयत्न एक आत्माको जाननेके लिये है, तो भी जिसने विचित्र जगतका स्वरूप नही जाना वह आत्माको नही जानता । यह उपदेश अयथार्थ नही ठहरता । ___आत्मा किससे, क्यो और किस प्रकारसे बंधा हुआ है यह ज्ञान जिसे नही हुआ, उसे वह किससे, क्यो और किस प्रकारसे मुक्त हो, इसका ज्ञान भी नही हुआ, और न हुआ हो तो यह वचनामृत भी प्रमाणभूत हे। महावीरके उपदेशका मुख्य आधार उपर्युक्त वचनामृतसे शुरू होता है, और इसका स्वरूप उन्होने सर्वोत्तम बताया है। इसके लिये आपको अनुकूलता होगी तो आगे कहूंगा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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