SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ श्रीमद् राजचन्द्र ____ यहाँ आपको एक यह भी विज्ञापना करना योग्य है कि महावीर या किसी भी दूसरे उपदेशकके पक्षपातके लिये मेरा कोई भी कथन अथवा मानना नहीं है, परतु आत्मत्व प्राप्त करने के लिये जिसका उपदेश अनुकूल है, उसके लिये पक्षपात ( 1 ), दृष्टिराग, प्रशस्त गग या मान्यता है, और उसके आधारपर मेरी प्रवृत्ति है, इसलिये यदि मेरा कोई भी कथन आत्मत्वको बाधा करनेवाला हो, तो उसे बताकर उपकार करते रहे । प्रत्यक्ष सत्सगकी तो वलिहारी है, और वह पुण्यानुवधी पुण्यका फल है, फिर भी जव तक ज्ञानीदृष्टानुसार परोक्ष सत्सग मिलता रहेगा तब तक भी मेरे भाग्यका उदय ही है। २ निग्रंथशासन ज्ञानवृद्धको सर्वोत्तम वृद्ध मानता है। जाति वृद्धता, पर्यायवृद्धता ऐसे वृद्धताके अनेक भेद है, परतु ज्ञानवृद्धताके बिना ये सारी वृद्धताएं नामतृद्धताएँ है, अथवा शून्यवृद्धताएँ है । ३ पुनर्जन्मसवधी मेरे विचार प्रदर्शित करनेके लिये आपने सूचित किया था उसके लिये यहाँ प्रसगोचित सक्षेपमात्र बताता हूँ - (अ) कुछ निर्णयोके आधारपर मै यह मानने लगा हूँ कि इस कालमे भी कोई कोई महात्मा गतभवको जातिस्मरणज्ञानसे जान सकते है, जो जानना कल्पित नही परन्तु सम्यक् होता है। उत्कृष्ट सवेग, ज्ञानयोग और सत्सगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभवरूप हो जाता है। जब तक पूर्वभव अनुभवगम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालका धर्मप्रयत्न शकासहित किया करता है, और शकासहित प्रयत्न योग्य सिद्धि नही देता। ___ (आ) 'पुनर्जन्म है,' इतना परोक्ष या प्रत्यक्षसे नि शकत्व जिस पुरुपको प्राप्त नही हुआ, उस पुरुषको आत्मज्ञान प्राप्त हुआ हो ऐसा शास्त्रशैली नही कहतो । पुनर्जन्मके सवधमे श्रुतज्ञानसे प्राप्त हुआ जो आशय मुझे अनुभवगम्य हुआ हे उसे यहाँ थोडासा बतलाये देता हूँ। (१) 'चैतन्य' और 'जड' इन दोनोको पहचाननेके लिये इन दोनोके बीच जो भिन्न धर्म हैं उनका पहले ज्ञान होना चाहिये, और उन भिन्न धर्मोंमे भी जिस मुख्य भिन्न धर्मको पहचानना है वह यह है कि 'चैतन्य'मे 'उपयोग' (अर्थात् जिससे किसी भी वस्तुका बोध होता है वह गुण) रहता है, और 'जड' मे वह नही है। यहाँ कदाचित् कोई यह निर्णय करना चाहे कि 'जड'मे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गध ये गुण रहते हैं और चैतन्यमे वे नहीं है, परन्तु यह भिन्नता आकाशकी अपेक्षा लेनेसे समझमे नही आ सकती, क्योकि निरजनता, निराकारता, अरूपिता इत्यादि कितने ही गुण आत्माकी भाँति आकाशमे भी रहते हैं तो फिर आकाशको आत्माके सदृश गिना जा सकता है क्योकि दोनोमे भिन्न धर्म न रहे। परन्तु भिन्न धर्म आत्माका पूर्वोक्त 'उपयोग' नामका गुण हे जो जड-चैतन्यकी भिन्नता सूचित करता है और फिर जड चैतन्यका स्वरूप समना सुगम हो जाता है। (२) जीवका मुख्य गुण या लक्षण 'उपयोग' (किसी भी वस्तुसवधी सवेदन, बोध, ज्ञान) है। जिसमे अशुद्ध और अपूर्ण उपयोग रहता है वह व्यवहारनयकी अपेक्षासे जीव है। निश्चयनयसे आत्मा स्वस्वरूपसे परमात्मा ही है, परतु जब तक आत्माने स्वस्वरूपको यथार्थ नहीं समझा तब तक वह छद्मस्थ जीव है 'अथात् वह परमात्मदशामे नही आया । जिसे शुद्ध और सपूर्ण यथार्थ उपयोग रहता है उसे परमात्मदशाको प्राप्त हुआ आत्मा माना जाता है। अशुद्ध उपयोगी होनेसे ही आत्मा कल्पितज्ञान (अज्ञान) को सम्यग्ज्ञान मान रहा है और सम्यग्ज्ञानके बिना पुनर्जन्मका निश्चय किसी अशमे भी यथार्थ नहीं होता । अशुद्ध उपयोग होनेका कुछ भी निमित्त होना चाहिये । वह निमित्त अनुपूर्वीसे चले आते हुए बाह्यभावसे गृहीत कमपुद्गल है। (उस कर्मका यथार्य स्वरूप सूक्ष्मतासे समझने योग्य है, क्योकि आत्माकी ऐसी दशा किसी भी निमित्तसे ही होनी चाहिये, और जब तक वह निमित्त जिस प्रकारसे है उस प्रकारसे समझमे न आये तब तक जिस मार्गसे जाना है उस मार्गकी निकटता नही होती ।). जिसका परिणाम विपर्यय हो उसका प्रारभ
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy