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________________ श्रीमद राजचन्द्र इस कालमे आत्मा पुनर्जन्मका निश्चय किससे, किस प्रकार और किस श्रेणिमे कर सकता है, इस सम्बन्धमे जो कुछ मेरी समझमे आया है, उसे यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके समक्ष रखूँगा । वि० आपके माध्यस्थ विचारोका अभिलाषी रायचद रवजीभाईके पञ्चागी प्रशस्त भावसे प्रणाम । वाणिया, वैशाख सुदी १२, १९४५ ६२ सत्पुरुषोको नमस्कार परमात्माका ध्यान करनेसे परमात्मा हुआ जाता है । परन्तु आत्मा उस ध्यानको सत्पुरुषके चरणकमलकी विनयोपासनाके बिना प्राप्त नही कर सकता, यह निग्रंथ भगवानका सर्वोत्कृष्ट वचनामृत है । मैने आपको चार भावनाओके बारेमे पहले कुछ सूचन किया था । उस सूचनको यहाँ विशेषता किंचित् लिखता हूँ । आत्माको अनन्त भ्रातिमेसे स्वरूपमय पवित्रं श्रेणिमे लाना यह कैसा निरुपम सुख है, यह कहने कहा नही जाता, लिखनेसे लिखा नही जाता और मनसे विचारनेसे विचारा नही जाता । १९० इस कालमे शुक्लध्यानकी मुख्यताका अनुभव भारतमे असभव है । उस ध्यानकी परोक्ष कथारूप अमृतताका रस कुछ पुरुष प्राप्त कर सकते है, परंतु मोक्षके मार्गकी अनुकूलता प्रथम धर्मध्यानके राजमार्ग है । इस कालमे रूपातीत तकके धर्मध्यानकी प्राप्ति कितने ही सत्पुरुषोको स्वभावसे, कितनोको सद्गुरुरूप निरुपम निमित्तसे और कितनो को सत्सग आदि अनेक साधनोंसे हो सकती है, परन्तु वैसे पुरुषनिर्ग्रथमतके-लाखोमे भी विरले ही निकल सकते है । प्रायः वे सत्पुरुष त्यागी होकर एकात भूमिमे वास करते है, कितने ही बाह्य अंत्यागके कारण संसारमे रहते हुए भी संसारीपन ही दिखाते हैं। पहले पुरुषका मुख्योत्कृष्ट और दूसरे पुरुषका गौणोत्कृष्ट ज्ञान प्राय गिना जा सकता है । चौथे गुणस्थानकमे आया हुआ पुरुष पात्रताको प्राप्त हुआ माना जा सकता है, वहाँ धर्मध्यानको गौणता है । पाँचवें मध्यम गोणता है। छठेमे मुख्यता तो है परन्तु वह मध्यम है। सातवेमे मुख्यता है । हम गृहवासमे सामान्य विधिसे उत्कृष्टत पाँचवे गुणस्थानमे आ सकते हैं, इसके सिवाय भावकी अपेक्षा तो और ही है । इस धर्मध्यानमे चार भावनाओंसे भूषित होना संभव है १ मंत्री - सर्वं जगतके जीवोको ओर निर्वैरबुद्धि | २ प्रमोद --- अशमात्र भी किसीका गुण देखकर उल्लासपूर्वक रोमाचित होना । ३ करुणा -- जगतके जीवोंके दुख देखकर अनुकपित होना । ४ माध्यस्थ या उपेक्षा -- शुद्ध समदृष्टिके बलवीर्य के योग्य होना । - इसके चार आलबन हैं। इसकी चार रुचि हैं। इसके चार पाये हैं । इस प्रकार धर्मध्यान अनेक भेदोमे विभक्त है । जो पवन (श्वास) का जय करता है, वह मनका जय करता है । जो मनका जय करता है वह आत्मलीनता प्राप्त करता है । यह जो कहा वह व्यवहार मात्र है । निश्चयसे निश्चय- अर्थकी अपूर्व योजना तो सत्पुरुषके अन्तरमे निहित है । श्वासका जय करते हुए भी सत्पुरुषको आज्ञासे पराङ्मुखता है, तो वह श्वासजय परिणाममे ससारको ही बढ़ाता है। श्वासका जय वहाँ है कि जहाँ वासनाका जय है । उसके दो साधन हैं -सदगुरु
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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