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________________ २२.वों वर्ष १८५ कि स्वय जड होते हुए भी चेतनको अचेतन मनवा रहा है | चेतन चेतनभावको भूलकर उसे स्वस्वरूप ही मानता है। जो पुरुष उस कर्मसयोग और उसके उदयसे उत्पन्न हुए पर्यायोको स्वस्वरूप नही मानते और पूर्वसयोग सत्तामे है, उन्हे अबध परिणामसे भोग रहे है, वे आत्मा स्वभावकी उत्तरोत्तर ऊर्ध्वश्रेणि पाकर शुद्ध चेतनभावको पायेगे ऐसा कहना सप्रमाण है। क्योकि अतीत कालमे वैसा हुआ है, वर्तमानकालमे वैसा होता है और अनागत कालमे वैसा ही होगा। कोई भी आत्मा उदयी कर्मको भोगते हुए समत्वश्रेणिमे प्रवेश करके अवध परिणामसे प्रवृत्ति करेगा तो वह अवश्य चेतनशुद्धि प्राप्त करेगा। - आत्मा विनयी होकर, सरल और लघुत्वभावको पाकर सदैव सत्पुरुषके चरणकमलमे रहे तो जिन महात्माओको नमस्कार किया है उन महात्माओकी जिस प्रकारकी ऋद्धि हैं उस प्रकारकी ऋद्धि सप्राप्त की जा सकती है। अनन्तकालमे या तो सत्पात्रता नही हुई और या तो सत्पुरुष (जिसमे सद्गुरुत्व, सत्सग और सत्कथा निहित है) नही मिले, नही तो निश्चय है कि मोक्ष हथेलीमे है, ईषत्प्राग्भारा अर्थात् सिद्ध-पृथ्वीपर उसके बाद है। इससे सर्वशास्त्र भी सम्मत हैं, (मनन कोजियेगा) और यह कथन त्रिकाल सिद्ध है। ५६ __ मोरबी, चैत्र सुदी ११, बुध, १९४५ आपके आरोग्यकी स्थिति मालूम हुई। आप देहकी संभाल रखें। देह हो तो धर्म हो सकता है। इसलिये वैसे साधनको सँभाल रखनेके लिये भगवानका भी उपदेश है।' . वि० रायचन्दके प्रणाम। ५७ मोरवी, चैत्र वदी ९, १९४५ चि०, 'कर्मगति विचित्र है । निरन्तर मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा भावना रखियेगा। मैत्री अर्थात् सर्व जगतसे निर्वैरबुद्धि, प्रमोद अर्थात् किसी भी आत्माके गुण देखकर हर्पित होना, करुणा अर्थात् ससारतापसे दुखी आत्माके दु खसे अनुकम्पा आना, और उपेक्षा अर्थात् नि स्पृहभावसे जगतके प्रतिबन्धको भूलकर आत्महितमे आना । ये भावनाएँ कल्याणमय और पात्रता देनेवाली है। मोरबी, चैत्र वदी १०, १९४५ आप दोनोंके पत्र मिले। स्याद्वाद-दर्शनका स्वरूप जाननेके लिये आपकी परम अभिलापासे मुझे सन्तोष हुआ है। परन्तु यह एक वचन अवश्य स्मरणमे रखे कि शास्त्रमे मार्ग कहा है, मर्म नही कहा। मर्म तो सत्पुरुषके अन्तरात्मामे रहा है । इसके बारेमे मिलने पर विशेष चर्चा की जा सकेगी। धर्मका रास्ता सरल, स्वच्छ और सहज है, परन्तु वह विरल आत्माओको प्राप्त हुआ है, प्राप्त होता है और प्राप्त होगा। अपेक्षित काव्य मौका मिलने पर भेज दूंगा। दोहोके अर्थके लिये भी यही वात है। अभी तो ये चार भावनाएँ भाये मैत्री ( सर्व जगतपर निर्वैरवुद्धि ), अनुकंपा ( उनके दु खपर करुणा), प्रमोद (आत्मगुण देखकर आनद), उपेक्षा (निःस्पृह बुद्धि) | इससे पात्रता आयेगी ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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