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________________ १८४ श्रीमद् रामचन्द्र ५३ ववाणिया, फागुन सुदी ६, गुरु, १९४५ चि०, जो जो आपको अभिलाषाएँ है उन्हे भलीभाँति नियममे लायें और फलीभूत हों ऐसा प्रयत्न करें। यह मेरी इच्छा है । शोच न करे । योग्य होकर रहेगा। सत्संग खोजें । सत्पुरुषकी भक्ति करे। वि० रायचन्दके प्रणाम। ५४ ववाणिया, फाल्गुन सुदी ९, रवि, १९४५ निग्रंथ महात्माओंको नमस्कार । मोक्षके मार्ग दो नही हैं। जिन जिन पुरुषोने मोक्षरूप परमशान्तिको भूतकालमे पाया है, उन सब सत्पुरुषोने एक ही मार्गसे पाया है, वर्तमानकालमे भी उसीसे पाते हैं, और भविष्यकालमे भी उसीसे पायेंगे। उस मार्गमे मतभेद नही है, असरलता नही है, उन्मत्तता नही है, भेदाभेद नहीं है, मान्यामान्य नहीं है। वह सरल मार्ग है, वह समाधिमार्ग है, तथा वह स्थिर मार्ग है, और स्वाभाविक शान्तिस्वरूप है। सर्व कालमे उस मार्गका अस्तित्व है, जिस मार्गके मर्मको पाये बिना कोई भूतकालमे मोक्षको प्राप्त नही हुआ, वर्तमानकालमे प्राप्त नही होता और भविष्यकालमे प्राप्त नही होगा। श्री जिनने इस एक ही मार्गको बतानेके लिये सहस्रश क्रियाएँ कही हैं और सहस्रशः उपदेश दिये है, और इस मार्गके लिये वे क्रियाएँ और उपदेश ग्रहण किये जायें तो सब सफल हैं। और इस मार्गको भूलकर वे क्रियाएँ और उपदेश ग्रहण किये जायें तो सब निष्फल है । श्री महावीर जिस मार्गसे तरे उस मार्गसे श्रीकृष्ण तरेंगे। जिस मार्गसे श्रीकृष्ण तरेंगे उस मार्गसे श्री महावीर तरे है। यह मार्ग चाहे जिस स्थानमे, चाहे जिस कालमें, चाहे जिस श्रेणिमे, और चाहे जिस योगमे जब प्राप्त होगा, तब उस पवित्र और शाश्वत सत्पदके अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अनुभव होगा । यह मार्ग सर्वत्र सम्भव है। योग्य सामग्री न प्राप्त करनेसे भव्य भी इस मार्गको पानेसे रुके हुए है, तथा रुकेंगे और रुके थे। ___ किसी भी धर्मसम्बन्धी मतभेद रखना छोडकर एकाग्र भावसे सम्यक्योगसे जिस मार्गका शोधन करना है, वह यही है। मान्यामान्य, भेदाभेद अथवा सत्यासत्यके लिये विचार करनेवालो या बोध देनेवालोको मोक्षके लिये जितने भवोका विलम्ब होगा उतने समयका (गौणतासे) शोधक और उस मार्गके द्वारपर आ पहुंचे हुओको विलम्ब नही होगा। विशेष क्या कहना ? वह मार्ग आत्मामे रहा है। आत्मत्वप्राप्त पुरुष-निग्रंथ आत्मा-जब योग्यता समझकर उस आत्मत्वका अर्पण करेगा-उदय करेगा तभी वह प्राप्त होगा, तभी वह मार्ग मिलेगा, और तभी वे मतभेद आदि दूर होगे। मतभेद रखकर किसीने मोक्ष नही पाया है । विचारकर जिसने मतभेद दूर किया, वह अन्तर्वृत्तिको पाकर क्रमश शाश्वत मोक्षको प्राप्त हुआ है, प्राप्त होता है और प्राप्त होगा। किसी भी अव्यवस्थित भावसे अक्षरलेख हुआ हो तो वह क्षम्य होवे । ५५ । ववाणिया, फाल्गुन सुदी ९, रवि, १९४५ नीरागी महात्माओको नमस्कार कर्म जड वस्तु है । जिस जिस आत्माको इस जड़से जितना जितना आत्मबुद्धिसे समागम है, उतनी उतनो जड़ताकी अर्थात् अवोधताकी उस उस आत्माको प्राप्ति होती है, ऐसा अनुभव होता है। आश्चर्य है
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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