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________________ १८६ श्रीमद राजचन्द्र ववाणिया, वैशाख सुदी १, १९४५ ____ आपकी देहसम्बन्धी शोचनीय स्थिति जानकर व्यवहारकी अपेक्षासे खेद होता है। मुझपर अतिशय भावना रखकर बरतनेकी आपकी इच्छाको मै रोक नही सकता, परन्तु वैसी भावना भानेसे आपकी देहको यत्किचित् हानि हो ऐसा न करे। मुझपर आपका राग रहता है, इस कारण आपपर राग रखनेकी मेरी इच्छा नहीं हैं, परन्तु आप एक धर्मपात्र जीव है और मुझे धर्मपात्रपर कुछ विशेष अनुराग उत्पन्न करनेकी परम इच्छा है, इस कारण किसी भी तरह आपके प्रति कुछ अशमे भी चाह रहती है । निरन्तर समाधिभावमे रहे । यो समझे कि मैं आपके समीप ही बैठा हूँ। अब मानो देह दर्शनका ध्यान हटाकर आत्मदर्शनमे स्थिर रहे । ममीप ही हूँ, यो समझकर शोक कम करें। जरूर कम कर। आरोग्य बढेगा; जिन्दगीको सँभाल रखे, अभी देहत्यागका भय न समझें, ऐसा वक्त होगा तो और ज्ञानीदृष्ट होगा तो जरूर पहलेसे कोई बता देगा अथवा कोई सहायक हो जायेगा । अभी तो वैसा नहीं है। प्रत्येक लघु कामके आरम्भमे भी उस पुरुषको याद करे, समीप ही है। यदि ज्ञानीदृष्ट होगा तो कुछ समय वियोग रहकर सयोग होगा और सब अच्छा ही होगा। अभी दशवकालिक शास्त्रका पुन मनन करता हूँ। अपूर्व बात है। यदि पद्मासन लगाकर अथवा स्थिर आसनसे बैठा जा सकता हो, लेटा जा सकता हो तो भी चलेगा, परन्तु स्थिरता चाहिये । देह चल विचल न होती हो, तो आँखें बन्द करके नाभिके भाग पर दृष्टि पहुंचाकर, फिर छातीके मध्य भागमे लाकर, ठेठ कपालके मध्य भागमे उस दृष्टिको लाकर सर्व जगतका शून्याभासरूप चिन्तन करके, अपनी देहमे सर्वत्र एक तेज व्याप्त हुआ है ऐसी कल्पना- करके जिस रूपसे पार्श्वनाथ आदि अर्हतकी प्रतिमा स्थिर एव धवल दिखायी देती है, ऐसा विचार छातीके मध्य भागमे करे । इनमेसे कुछ न हो सकता हो तो सवेरे चार या पांच बजे जागकर मेरे दुपट्टे (मैने जो रेशमी किनारीका रखा था) को ओढकर मुंह ढंककर एकाग्रताका चिन्तन करना। हो सके तो अर्हत्स्वरूपका चिन्तन करना, नही तो कुछ भी चिन्तन न करते हुए समाधि या वोधि इन शब्दोका ही चिन्तन करना । अभी इतना ही। परम कल्याणकी एक श्रेणि होगी। कमसे कम बारह पल और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकी स्थिति रखना। वि० रायचन्द वैशाख, १९४५ ६० संयत धर्म १ अयतनासे चलते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोकी हिंसा होती है, जिससे वह पापकर्म बांधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है। २. अयतनासे खडे होते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जोवोकी हिंमा होती है, जिससे वह पापकर्म वॉधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है । ४ अयतनासे सोते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोको हिंसा होती है, जिससे वह पापकर्म बांधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है। ५ अयतनासे भोजन करते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोकी हिंसा होती है, जिससे वह पापकर्म बाँधता है; उसका उसे कडवा फल मिलता है। ६ अयतनासे बोलते हुए प्राणभूत-त्रसस्थावर जीवोको हिंसा होती है जिससे वह पापकर्म बाँधता है, उसका उसे कडवा फल मिलता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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