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________________ २०वाँ वर्ष, १६७ ८ यदि मन शकाशील हो गया हो तो 'द्रव्यानुयोग' का विचार करना योग्य है; प्रमादी हो गया हो तो 'चरणकरणानुयोग' का विचार करना योग्य है, और कषायी हो गया हो तो 'धर्मकथानुयोग' का विचार करना योग्य है; और जड हो गया हो तो 'गणितानुयोग' का विचार करना योग्य है। ९ किसी भी कामकी निराशा चाहना, परिणाममे फिर जितनी सिद्धि हुई उतना लाभ; ऐसा करनेसे सतोषी रहा जायेगा । १०. पृथ्वीसवधी क्लेश हो तो यो समझ लेना कि वह साथ आनेवाली नही है, प्रत्युत मै उसे देह देकर चला जानेवाला हूँ, और वह कुछ मूल्यवान नही है। स्त्रीसबधी क्लेश, शका भाव हो तो यो समझकर अन्य भोक्ताके प्रति हँसना कि वह मल-मूत्रकी खानमे मोहित हो गया, (जिस वस्तुका हम नित्य त्याग करते हैं उसमे | ) धनसम्बन्धी निराशा या क्लेश हो तो वे ऊँची जातिके ककर हैं यो समझकर सतोष रखना, तो क्रमसे तू नि.स्पृही हो सकेगा। ११ उसका तू बोध प्राप्त कर कि जिससे समाधिमरणकी प्राप्ति हो। १२ एक बार यदि समाधिभरण हुआ तो सर्व कालके असमाधिमरण दूर हो जायेंगे | १३ सर्वोत्तम पद सर्वत्यागीका है। २६ ववाणिया बदर, १९४३ सुज्ञश्री चत्रभुज बेचर, पत्रका उत्तर नही लिख सका । यह सब मनकी विचित्र दशाके कारण है। रोष या मान इन दोमेसे कोई नही है। कुछ ससार भावकी खिन्नता तो जरूर है। इससे आपको परेशान नहीं होना चाहिये । क्षमा चाहते है । बातका विस्मरण करनेके लिये विनती है। सावधानी शूरवीरका भूषण है। जिनाय नमः २७ बबई, सं० १९४३ महाशय, आपकी पत्रिका मिली थी । समाचार विदित हुए । उत्तरमे निवेदन है कि मुझे किसी भी प्रकारसे बुरा नही लगा। वैराग्यके कारण अपेक्षित स्पष्टीकरण लिख नही सकता । यद्यपि अन्य किसीको तो पहुँच भी नही लिख सकता, तो भी आप मेरे हृदयरूप हैं, इसलिये पहुँच इत्यादि लिख सकता हूँ। मैं केवल हृदयत्यागी हूँ। थोडे समयमे कुछ अद्भुत करनेके लिये तत्पर हूँ । ससारसे तग आ गया हूँ। ___ मैं दूसरा महावीर हूँ, ऐसा मुझे आत्मिक शक्तिसे मालूम हुआ है। दस विद्वानोने मिलकर मेरे ग्रहोको परमेश्वरग्रह ठहराया है । सत्य कहता हूँ कि मैं सर्वज्ञ जैसी स्थितिमे हूँ । वैराग्यमे झूमता हूँ। आशुप्रज्ञ राजचन्द्र दुनिया मतभेदके वधनसे तत्त्वको पा नही सकी । इसमे सत्य सुख और सत्य आनद नहीं हैं। उसके स्थापित होनेके लिये और एक सच्चे धर्मको चलानेके लिये आत्माने साहस किया है। उस धर्मका प्रवर्तन करूंगा ही। महावीरने अपने समयमे मेरा धर्म कुछ अशोमे प्रचलित किया था। अब वेसे पुरुषोंके मार्गको ग्रहण करके श्रेष्ठ धर्मको स्थापना करूंगा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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