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________________ १६६ श्रीमद् राजचन्द्र २४ जीवाजीव विभक्ति जीव और अजीवके विचारको एकाग्र मनसे श्रवण करें। जिसे जानकर भिक्षु सम्यक् प्रकारसे सयममे यत्न करते हैं । जीव और अजीव ( जहाँ हो उसे ) लोक कहा है। अजीवके आकाश नामके भागको अलोक कहा है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे जीव और अजीवका बोध हो सकता है । रूपी और अरूपी इस प्रकार अजीवके दो भेद होते हैं । अरूपीके दस प्रकार और रूपीके चार प्रकार कहे हैं । धर्मास्तिकाय, उसका देश, और उसके प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, उसका देश, और उसके प्रदेश, आकाश, उसका देश, और उसके प्रदेश, अद्धासमय कालतत्त्व, इस प्रकार अरूपीके दस प्रकार होते हैं । धर्म और अधर्मं ये दोनो लोक प्रमाण कहे हैं । आकाश लोकालोकप्रमाण और अद्धासमय समयक्षेत्र' - प्रमाण है । धर्म, अधर्मं और आकाश ये अनादि अपर्यवस्थित हैं । निरंतरको उत्पत्तिको अपेक्षासे समय भी इसी प्रकार हैं । सतति एक कार्यकी अपेक्षासे सादिसा है। स्कंध, स्कधदेश, उसके प्रदेश और परमाणु इस तरह रूपी अजीव चार प्रकारके हैं । जिसमे परमाणु एकत्र होते हैं और जिससे परमाणु पृथक होते हैं वह स्कंध है । उसका विभाग देश और उसका अतिम अभिन्न अश प्रदेश है । वह लोकके एक देशमें क्षेत्री है । उसके कालके विभाग चार प्रकारके कहे जाते हैं । निरन्तर उत्पत्तिकी अपेक्षासे अनादि अपयवस्थित है । एक क्षेत्रकी स्थितिको अपेक्षासे सादिसपर्य वस्थित है । [ अपूर्ण ] ( उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन ३६ ) कार्तिक, १९४३ २५ १ प्रमादके कारण आत्मा प्राप्त हुए स्वरूपको भूल जाता है । २ जिस जिस कालमे जो जो करना है उसे सदा उपयोगमे रखे रहे । ३ फिर क्रमसे उसकी सिद्धि करें । ४ अल्प आहार, अल्प विहार, अल्प निद्रा, नियमित वाचा, नियमित काया और अनुकूल स्थान, ये मनको वश करनेके उत्तम साधन हे । ५ श्रेष्ठ वस्तुकी अभिलाषा करना ही आत्माकी श्रेष्ठता है । कदाचित् वह अभिलाषा पूरी न हुई तो भी वह अभिलाषा भो उसीके अंशके समान है । ६ नये कर्मोंको नही बाँधना और पुरानोको भोग लेना, ऐसी जिसकी अचल अभिलाषा है, वह तदनुसार वर्तन कर सकता है । $ १. मनुष्यक्षेत्र - ढाईद्वीप प्रमाण । ७ जिस कृत्यका परिणाम धर्म नहीं है, उस कृत्यको करनेकी इच्छा मूलसे ही नही रहने देनी चाहिये ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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