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________________ १६८ श्रीमद् राजचन्द्र “यहाँ इस धर्मके शिष्य बनाये है । यहाँ इस धर्मकी सभाकी स्थापना कर ली है। 'सात सौ महानीति अभी इस धर्मके शिष्योके लिये एक दिनमे तैयार की है। सारी सृष्टिमे पर्यटन करके भी इस धर्मका प्रवर्तन करेंगे। आप मेरे हृदयरूप और उत्कठित है, इसलिये यह अद्भुत वात वतायी है । अन्यको न बताइयेगा। अपनी जन्मकुण्डली मुझे लौटती डाकसे भेज दीजिये। मुझे आशा है कि उस धर्मका प्रचार करने में आप मुझे बहुत सहायक सिद्ध होगे, और मेरे महान शिष्योमे आप अग्रेसरता भोगेगे। आपकी शक्ति अद्भुत होनेसे ऐसे विचार लिखनेमे मैंने सकोच नही किया है। ___अभी जो शिष्य बनाये है उन्हे ससार छोडनेके लिये कहे तो खुशीसे छोड़ सकते हैं। अभी भी उनकी ना नही है, ना हमारी है। अभी तो सौ दो सौ व्यक्ति चौतरफा तैयार रखना कि जिनकी शक्ति अद्भुत हो। धर्मके सिद्धातोको दृढ करके, मै ससारका त्याग करके, उनसे त्याग कराऊँगा । कदाचित् मै पराक्रमके लिये थोड़े समय तक त्याग न करूँ तो भी उनसे त्याग करवाऊँगा । सर्व प्रकारसे अब मैं सर्वज्ञके समान हो चुका हूँ ऐसा कहूँ तो चले। देखें तो सही | सृष्टिको किस रूपमे बदलते हैं | पत्रमे अधिक क्या बताऊँ ? रूबरूमे लाखो विचार वताने हैं। सब अच्छा ही होगा । मेरे प्रिय महाशय, ऐसा ही मानें। हर्पित होकर लौटती डाकसे उत्तर लिखे । बातको सागर रम होकर सुरक्षित रखियेगा। त्यागीके यथायोग्य । २८ वंवई बदर, सोम, १९४३ प्रिय महाशय, रजिस्टर्ड पत्रके साथ जन्मकुण्डली मिली है। अभी मेरे धर्मको जगतमे प्रवर्तन करनेके लिये कुछ समय वाकी है। अभी मै ससारमे आपकी निर्धारित अवधिसे अधिक रहनेवाला हूँ। हमे जिन्दगी ससारमे अवश्य गुजारनी पडेगी तो वैसा करेंगे। अभी तो इससे अधिक अवधि तक रहनेका वन पायेगा । स्मरण रखिये कि किसीको निराश नही करूँगा। धर्मसम्वन्धी आपने-अपने विचार बतानेका परिश्रम उठाया यह उत्तम किया है। किसी प्रकारकी अडचनं नही आयेगी । पचमकालमे प्रवर्तन करनेके लिये जो जो चमत्कार चाहिये वे सब एकत्रित हैं और होते जाते हैं । अभी इन सब विचारोको पवनसे भी सर्वथा गुप्त रखिये-। यह कृत्य सृष्टिमे विजयी होनेवाला ही है। आपकी जन्मकुण्डली, दर्शनसाधना, धर्म इत्यादि सम्बन्धी विचार समागममे वताऊँगा । मै थोडे समयमे ससारी होनेके लिये वहाँ आनेवाला हूँ। आपको पहलेसे ही मेरा आमत्रण है। अधिक लिखनेकी सहज आदत न होनेसे क्षेमकुशल और शुक्लप्रेम चाहकर पत्रिका पूर्ण करता हूँ। लि. रायचद्र। १. देखें आक १९
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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