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________________ १६२ श्रीमद राजचन्द्र जैन मुनि होनेके बाद अपनी निर्विकल्प दशा हो जानेसे उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे अब क्रमपूर्वक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे यम-नियमोका पालन नही कर सकेगे। जिस पदार्थकी प्राप्तिके लिये यमनियमका क्रमपूर्वक पालन करना होता है, उस वस्तुकी प्राप्ति हो गयी तो फिर उस श्रेणिसे प्रवृत्ति करना और न करना दोनो समान है ऐसी तत्त्वज्ञानियोको मान्यता है । जिसे निर्ग्रन्थ प्रवचनमे अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि माना है, उसमेसे सर्वोत्तम जातिके लिये कुछ कहा नही जा सकता। परन्तु एकमात्र उनके वचनोका मेरे अनुभवज्ञानके कारण परिचय होनेसे ऐसा कहा जा सका है कि वे प्रायः मध्यम अप्रमत्तदशामे थे। फिर उस दशामे यम-नियमका पालन गौणतासे आ जाता है। इसलिये अधिक आत्मानन्दके लिये उन्होने यह दशा मान्य रखी । इस कालमे ऐसी दशाको पहुँचे हुए बहुत ही थोड़े मनुष्योकी प्राप्ति भी दुर्लभ है । उस अवस्थामे अप्रमत्तता विषयक वातका असम्भव त्वरासे होगा ऐसा मानकर उन्होने अपना जीवन अनियतरूपसे और गुप्तरूपसे बिताया । यदि एसी ही दशामे वे रहे होते तो बहुतसे मनुष्य उनके मुनिपनेकी स्थितिशिथिलता समझते और ऐसा समझनेसे उनपर ऐसे पुरुपका अभीष्ट प्रभाव नही पडता। ऐसा हार्दिक निर्णय होनेसे उन्होने यह दशा स्वीकार की। णमो जहट्ठियवत्थुवाईणं। x रूपातीत व्यतीतमल, पूर्णानंदी ईस। चिदानन्द ताक नमत, विनय सहित निज शोस ॥' जो रूपसे रहित हैं, कर्मरूपी मल जिनका नष्ट हो गया है, और जो पूर्णानदके स्वामी है, उन्हे चिदानन्दजी अपना मस्तक झुकाकर विनयसहित नमस्कार करते हैं। रूपातीत-इस शब्दसे यह सूचित किया कि परमात्म-दशा रूपरहित है। व्यतीतमल-इस शब्दसे यह सूचित किया कि कर्मका नाश हो जानेसे वह दशा प्राप्त होती है। पूर्णानन्दी ईस-इस शब्दसे उस दशाका सुख बताया कि जहां सम्पूर्ण आनन्द है, अर्थात् यह सूचित किया कि परमात्मा पूर्ण आनन्दके स्वामी है। फिर रूपरहित तो आकाश भी है, इसलिये कर्ममलके नाशसे आत्मा जडरूप सिद्ध हो जाये । इस शंकाको दूर करनेके लिये यह कहा कि उस दशामे आत्मा पूर्णानन्दका ईश्वर है, और ऐसी उसकी रूपातीतता है। चिदानन्द ताकुं नमत-इन शब्दोसे अपनी उनपर नाम लेकर अनन्य प्रीति बतायी है । सर्वाङ्ग नमस्कार करनेकी भक्तिमे अपना नाम लेकर अपना एकत्व बता करके विशेष भक्तिका प्रतिपादन किया है। विनयसहित-इस शब्दसे यथायोग्य विधिका बोध दिया। यह सूचित किया कि भक्तिका मूल विनय है। निज शोस-इन शब्दोसे यह बताया कि देहके सर्व अवयवोमे मस्तक श्रेष्ठ है, और उसके झुकानेसे सर्वाङ्ग नमस्कार हुआ । तथा यह भी सूचित किया कि मस्तक झुकाकर नमस्कार करनेकी विधि श्रेष्ठ है । 'निज' शब्दसे आत्मत्व भिन्न बताया कि मेरे उपाधिजन्य देहका जो उत्तमाग वह (शीस) कालज्ञानादिक थकी, लही आगम अनुमान । गुरु करुना करी कहत हूँ, शुचि स्वरोदयज्ञान ॥ 'कालज्ञान' नामके ग्रन्थ इत्यादिसे, जैनसिद्धातमे कहे हुए बोधके अनुमानसे और गुरुकी कृपाके प्रतापसे स्वरोदयका पवित्र ज्ञान क १. पद्य संख्या ८ २. पद्य सख्या ९
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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