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________________ २०वाँ वर्ष ११६ दुखके मारे वैराग्य लेकर ये लोग जगतको भ्रममे डालते है । ११७ अभी मै कौन हूँ इसका मुझे पूर्ण भान नही है । ११८ तू सत्पुरुषका शिष्य है । ११९. यही मेरी आकाक्षा है । १२० मेरे लिये गजसुकुमार जैसा कोई समय आये । १२१ राजेमती जैसा कोई समय आये । १२२ सत्पुरुष कहते नही करते नही, फिर भी उनकी सत्पुरुपता निर्विकार मुखमुद्रामे निहित है । १२३ सस्थानविचयध्यान पूर्वधारियोको प्राप्त होता होगा, ऐसा मानना योग्य लगता है । आप भी उसका ध्यान करे । १-१२४ आत्मा जैसा कोई देव नही है । १२५ भाग्यशाली कौन ? अविरति सम्यग्दृष्टि या विरति ? १२६ किसीकी आजीविका नष्ट न करें । १६१ २२ स्वरोदयज्ञान बबई, कार्तिक, १९४३ यह 'स्वरोदयज्ञान' ग्रन्थ पाठकके करकमलमे रखते हुए इस विषयमे कुछ प्रस्तावना लिखना योग्य मानकर उसे लिखता हूँ । हम यह देख सकेंगे कि 'स्वरोदयज्ञान' की भाषा आधी हिन्दी और आधी गुजराती है। इसके कर्ता एक आत्मानुभवी व्यक्ति थे, परन्तु ऐसा कुछ मालूम नही होता कि उन्होने दोनोमेसे किसी एक भी भाषाका विधिपूर्वक पढ़ा हो। इससे उनकी आत्मशक्ति या योगदशामे कोई बाधा नही आती । और यह बात भी नही है कि वे भाषाशास्त्री होनेकी कुछ इच्छा भी रखते थे। इसलिये उन्हे स्वय जो कुछ अनुभवसिद्ध हुआ है उसमेसे लोगोको मर्यादापूर्वक कुछ भी बोध दे देनेकी उनकी अभिलाषासे इस ग्रन्थकी उत्पत्ति हुई है । और ऐसा होने से ही भाषा या छन्दको टीमटाम अथवा युक्ति प्रयुक्तिका अधिक दर्शन इस ग्रन्थमे नही कर सकते । जगत जब अनादि अनन्त कालके लिये है तब फिर उसको विचित्रताके लिये क्या विस्मय करें ? आज जडवादके बारेमे जो शोधन चल रहा है वह कदाचित् आत्मवादको उडा देनेका प्रयत्न है, परन्तु ऐसे भी अनन्त काल आये हैं कि जब आत्मवादका प्राधान्य था, और इसी तरह कभी जडवादका भी बोलवाला था । इसके लिये तत्त्वज्ञानी किसी विचारमे नही पड जाते, क्योकि जगतकी ऐसी ही स्थिति है, तो फिर विकल्पसे आत्माको दु खी क्यो करना ? परन्तु सब वासनाओका त्याग करनेके बाद जिस वस्तुका अनुभव हुआ, वह वस्तु क्या है, अर्थात् स्व और पर क्या है ? अथवा इस बातका निर्णय किया कि स्व तो स्व है, फिर तो भेदवृत्ति रही नही । इसलिये सम्यक्दर्शनसे उनकी यही सम्मति रही कि मोहाधीन आत्मा अपनेआपको भूलकर जडत्व स्वीकार करता है, इसमे कुछ आश्चर्य नही है । फिर उसका स्वीकार करना शब्दकी तकरारमे X X X X वर्तमान शताब्दीमे और फिर उसके भी कितने ही वर्ष व्यतीत होने तक आत्मज्ञ चिदानन्दजी विद्यमान थे । बहुत ही समीपका समय होनेसे जिन्हे उनके दर्शन हुए थे, समागम हुआ था और जिन्हे उनकी दशाका अनुभव हुआ था उनमेसे कुछ प्रतीतिवाले मनुष्योसे उनके विषय मे जाना जा सका है, तथा अव भी वैसे मनुष्योसे जाना जा सकता है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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