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________________ १६० विशेष | श्रीमद् राजचन्द्र ८५ धर्मका मूल वि० है | ८६ उसका नाम विद्या है कि जिससे अविद्या प्राप्त न हो । ८७ वीरके एक वाक्यको भी समझें । ८८ अहपद, कृतघ्नता, उत्सूत्रप्ररूपणा और अविवेकधर्म ये दुर्गतिके लक्षण है । ८९ स्त्रीका कोई अग लेशमात्र भी सुखदायक नही है, फिर भी मेरी देह उसे भोगती है । ९० देह और देहार्थममत्व यह मिथ्यात्वका लक्षण है । ९१. अभिनिवेशके उदयमे उत्सूत्रप्ररूपणा न हो उसे मै ज्ञानियोंके कहने से महाभाग्य कहता हूँ । ९२ स्याद्वाद शैली से देखते हुए कोई मत असत्य नही है । ८९३ जानी स्वादके त्यागको आहारका सच्चा त्याग कहते है । ९४ अभिनिवेश जैसा एक भी पाखंड नही है । ९५ इस कालमे इतना बढ़ा - अतिशय मत, अतिशय ज्ञानी, अतिशय माया और अतिशय परिग्रह ९६ तत्त्वाभिलाषासे मुझे पूछे तो मै आपको नीरागीधर्मका उपदेश जरूर कर सकूँगा । ९७ जिसने सारे जगतका शिष्य होनेरूप दृष्टिका वेदन नही किया वह सद्गुरु होने योग्य नही है । ९८. कोई भी शुद्धाशुद्ध धर्मकरनी करता हो तो उसे करने दें । ९९ आत्माका धर्म आत्मामे ही है । १०० मुझपर सभी सरल भावसे हुक्म चलाये तो मै राजी हूँ । १०१. मैं संसारसे लेश भी रागसयुक्त नही, फिर भी उसीको भोगता हूँ, मैने कुछ त्याग नहीं किया । १०२ निर्विकारी दशासे मुझे अकेला रहने दें । १०३ महावीरने जिस ज्ञानसे इस जगतको देखा है वह ज्ञान सब आत्माओमे है, परंतु उसका आविर्भाव करना चाहिये । 12 १०४ बहुत बहक जाएँ तो भी महावीरकी' आज्ञाका भग न कीजियेगा । चाहे जेसी शका हो तो भी मेरी ओरसे वीरको निशक मानिये । 0 १०५ पार्श्वनाथस्वामीके ध्यानका स्मरण योगियोको अवश्य करना चाहिये । नि ० - नागकी छत्रछायाके समयका वह पार्श्वनाथ ओर ही था । १०६ गजसुकुमारकी क्षमा और राजेमती रहनेमीको जो बोध देती है वह बोध मुझे प्राप्त होवें । १०७ भोग भोगने तक [जब तक वह कर्म है तब तक ] मुझे योग ही प्राप्त रहे । १०८ सव शास्त्रोका एक तत्त्व मुझे मिला है ऐसा कहूँ तो यह मेरा अहपद नही है । १०९ न्याय मुझे बहुत प्रिय है। वीरकी शैली हो न्याय हैं, समझना दुष्कर है । ११० पवित्र पुरुषोकी कृपादृष्टि ही सम्यग्दर्शन है । १११ भर्तृहरिका कहा हुआ त्याग, विशुद्ध बुद्धिसे विचार करनेसे बहुत ऊर्ध्वज्ञानदशा होने तक रहता है । ११२ में किसी धर्मसे विरुद्ध नही हूँ। मै सव धर्मोंका पालन करता हूँ । आप सभी धर्मोसे विरुद्ध है यो कहने मेरा उत्तम हेतु है । ११३. आपके माने हुए धर्मका उपदेश मुझे किस प्रमाणसे देते है उसे जानना मेरे लिये आवश्यक है । FY · ११४ शिथिल व दृष्टिसे नीचे आकर ही बिखर जाये (-यदि निर्जरामे आये तो ) ११५ किसी भी शास्त्रमे मुझे शका न हो ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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