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________________ २० वा वर्ष १५९ ५६ ऐसा समझे कि आपको अपने आत्माके हितकी ओर जानेकी अभिलाषा रखते हुए भी निराशा प्राप्त हुई तो वह भी आपका आत्महित ही है। ५७ आप अपने शुभ विचारमे सफल होवें, नही तो स्थिर चित्तसे ऐसा समझें कि सफल हुए हैं। ५८ ज्ञानी अंतरंग खेद और हर्षसे रहित होते है । ५९ जब तक उस तत्त्वकी प्राप्ति न हो तब तक मोक्षकी तात्पर्यता नही मिली। ६० नियम-पालनको दृढ करते हुए भी वह नही पलता यह पूर्वकर्मका ही दोष है ऐसा ज्ञानियोका कहना है। ६१. ससाररूपी कुटुम्बके घरमे अपना आत्मा अतिथि तुल्य है। ६२ वही भाग्यशाली है कि जो दुर्भाग्यशालीपर दया करता है। ६३ महर्षि कहते हैं कि शुभ द्रव्य शुभ भावका निमित्त है। ६४ स्थिर चित्त होकर धर्म और शुक्ल ध्यानमे प्रवृत्ति करें। ६५ परिग्रहकी मूर्छा पापका मूल है। ६६ जिस कृत्यको करते समय व्यामोहसयुक्त खेदमे हैं और परिणाममे भी पछताते है, तो उस कृत्यको ज्ञानी पूर्वकर्मका दोष कहते है। ६७ जडभरत और विदेही जनककी दशा मुझे प्राप्त हो । ६८. सत्पुरुषके अत करणने जिसका आचरण किया अथवा जिसे कहा वह धर्म है । ६९ जिसकी अतरग मोहग्रंथि चली गई वह परमात्मा है। ७०. व्रत लेकर उल्लासित परिणामसे उसका भग न करें। ७१ एक निष्ठासे ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करनेसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है। ७२ क्रिया ही कर्म, उपयोग ही धर्म, परिणाम ही बध, भ्रम ही मिथ्यात्व, ब्रह्म ही आत्मा और शका ही शल्य है । शोकका स्मरण न करें; यह उत्तम वस्तु ज्ञानियोंने मुझे दी। ७३ जगत जैसा है वैसा तत्त्वज्ञानको दृष्टिसे देखें। ७४ श्री गौतमको पठन किये हुए चार वेद देखनेके लिये श्रीमान महावीरस्वामीने सम्यक्नेत्र दिये थे। ७५ भगवतीमे कही हुई 'पुद्गल नामके परिव्राजककी कथा तत्त्वज्ञानियोका कहा हुआ सुन्दर रहस्य हैं। ७६ वीरके कहे हुए शास्त्रोमे सुनहरी वचन जहाँ तहाँ अलग-अलग और गुप्त है। ७७ सम्यक्नेत्र प्राप्त करके आप चाहे जिस धर्मशास्त्रका विचार करे तो भी आत्महित प्राप्त होगा।।। ७८ हे कुदरत | यह तेरा प्रबल अन्याय है कि मेरी निर्धारित नीतिसे मेरा काल व्यतीत नही कराती | [कुदरत अर्थात् पूर्वकृत कर्म] ७९ मनुष्य परमेश्वर होता है ऐसा ज्ञानी कहते है। ८० उत्तराध्ययन नामके जैनसूत्रका तत्त्वदृष्टिसे पुन पुनः अवलोकन करें। ८१ जोते हुए मरा जाये तो फिर मरना न पड़े ऐसे मरणको इच्छा करना योग्य है। ८२ कृतघ्नता जैसा एक भी महा दोष मुझे नहीं लगता। ८३ जगतमे मान न होता तो यही मोक्ष होता। ८४ वस्तुको वस्तुरूपसे देखें। १ शतक ११, उद्देश १२ में ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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