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________________ १५८ श्रीमद् राजचन्द्र २९ यथार्थ वचन ग्रहण करनेमे दभ न रखियेगा या देनेवालेके उपकारका लोप न कीजियेगा। ३० हमने बहुत विचार करके यह मूल तत्त्व खोजा है कि,-गुप्त चमत्कार ही सृष्टिके ध्यानमे नही है। ३१ रुलाकर भी बच्चेके हाथमे रहा हुआ सखिया ले लेना। ३२. निर्मल अंत करणसे आत्माका' विचार करना योग्य है। ३३ जहाँ 'मै' मानता है वहाँ 'तू नही है, जहाँ 'तू' मानता है वहाँ 'तू' नही है। ३४ हे जीव | अब भोगसे शात हो, शात । विचार तो सही कि इसमे कौनसा सुख है ? ३५ बहुत परेशान होकर ससारमे मत रहना । ३६ सत्ज्ञान और सत्शीलको साथ-साथ बढ़ाना। ३७. एकसे मैत्री न कर, करना हो तो सारे जगतसे कर । ३८ महा सौंदर्यसे परिपूर्ण देवांगनाके क्रीडाविलासका निरीक्षण करते हुए भी जिसके अंतःकरणमे कामसे विशेषातिविशेष विराग स्फुरित होता है, वह धन्य है, उसे त्रिकाल नमस्कार है। ३९. भोगके समय योग याद आये यह लघुकर्मीका लक्षण है। ४०. इतना हो तो मैं मोक्षकी इच्छा नही करता-सारी सृष्टि सत्शील का सेवन करे, नियमित आयु, नोरोग शरीर, अचल प्रेमी प्रमदा, आज्ञाकारी अनुचर, कुलदीपक पुत्र, जीवनपर्यन्त बाल्यावस्था और आत्मतत्त्वका चिंतन । ' ४१ ऐसा कभी होनेवाला नहीं है, इसलिये मै तो मोक्षको ही चाहता हूँ। ४२ सृष्टि सर्व अपेक्षासे अमर होगी? ४३ किसी अपेक्षासे मैं ऐसा कहता हूँ कि यदि सृष्टि मेरे हाथसे चलती होती तो बहुत विवेकी स्तरसे परमानदमे विराजमान होती। ४४ शुक्ल निर्जनावस्थाको मैं बहुत मान्य करता हूँ। ४५ सृष्टिलीलामे शातभावसे तपश्चर्या करना यह भी उत्तम है। ४६ एकातिक कथन करनेवाला ज्ञानी नही कहा जा सकता। ४७. शुक्ल अंतःकरणके बिना मेरे कथनको कौन दाद देगा? ४८ ज्ञातपुत्र भगवानके कथनकी ही बलिहारी है। ४९ मैं आपकी मूर्खतापर हँसता हूँ कि-नही जानते गुप्त चमत्कारको फिर भी गुरुपद प्राप्त करनेके लिये मेरे पास क्यो पधारें ? ५०. अहो | मुझे तो कृतघ्नी ही मिलते मालूम होते हैं, यह कैसी विचित्रता है। ५१. मुझ पर कोई राग करे इससे मै प्रसन्न नही हूँ, परन्तु कटाला देगा तो मैं स्तब्ध हो जाऊँगा और यह मुझे पुसायेगा भी नहीं।। ५२ मै कहता हूँ ऐसा कोई करेगा? मेरा कहा हुआ सब मान्य रखेगा? मेरा कहा हुआ शब्दशः अंगीकृत करेगा ? हाँ हो तो ही हे सत्पुरुष | तू मेरी इच्छा करना। ५३. संसारी जोवोने अपने लाभके लिये द्रव्यरूपसे मुझे हँसता-खेलता लीलामय मनुष्य बनाया! ५४ देवदेवीको तुष्यमानताको क्या करेंगे? जगतकी तुष्यमानताको क्या करेगे ? तुष्यमानता तो सत्पुरुषकी चाहे । ५५ मै सच्चिदानद परमात्मा हूँ। १. पाठा० गुप्त चमत्कारका ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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