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________________ १५७ २० वॉ वर्ष ४. जिस कृत्यके परिणाममे दुःख है उसका सन्मान करनेसे पहले विचार करें । ५ किसीको अन्त. करण न दीजियेगा, जिसे दें उससे भिन्नता न रखियेगा, भिन्नता रखे तो अतः - करण दिया न दिया समान है । ६. एक भोग भोगता है फिर भी कर्मकी वृद्धि नही करता, और एक भोग नही भोगता फिर भी कर्मको वृद्धि करता है, यह आश्चर्यकारक परतु समझने योग्य कथन है | ७ योगानुयोगसे बना हुआ कृत्य बहुत सिद्धि देता है । ८ आपने जिससे अतर्भेद पाया उसे सर्वस्व अर्पण करते हुए न रुकियेगा । ९ तभी लोकापवाद सहन करना कि जिससे वे ही लोग अपने किये हुए अपवादका पुन पश्चात्ताप करें । १० हजारो उपदेश-वचन और कथन सुननेकी अपेक्षा उनमेसे थोडे भी वचनोका विचार करना विशेष कल्याणकारी है । ११ नियमसे किया हुआ कार्य त्वरासे होता है, निर्धारित सिद्धि देता है, और आनदका कारण जाता है । १२ ज्ञानियो द्वारा एकत्र की हुई अद्भुत निधिके उपभोगी बने । १३. स्त्री जातिमे जितना मायाकपट है उतना भोलापन भी है । १४ पठन करनेकी अपेक्षा मनन करनेकी ओर अधिक ध्यान दीजिये । १५. महापुरुषके आचरण देखनेको अपेक्षा उनका अत. करण देखना, यह अधिक परीक्षा है ।' १६ वचनसप्तशतीको' पुनः पुन. स्मरणमे रखें। १७ महात्मा होना हो तो उपकारबुद्धि रखें, सत्पुरुषके समागममे रहे, आहार, विहार आदि अलुब्ध और नियमित रहे, सत्शास्त्रका मनन करें, और ऊँची श्रेणिमे ध्यान रखें । १८ इनमे से एक भी न हो तो समझकर आनद रखना सीखे । १९ वर्तनमे बालक बनें, सत्यमे युवक बनें और ज्ञानमे वृद्ध बनें । २० राग नही करना, करना तो सत्पुरुषसे करना, द्वेष नही करना, करना तो कुशीलसे करना । २१ अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनतचारित्र और अनतवीर्यसे अभिन्न ऐसे आत्माका एक पल भी विचार करें । २२ जिसने मनको वश किया उसने जगतको वश किया । २३ इस ससारको क्या करे ? अनत बार हुई मॉको आज हम स्त्रीरूपसे भोगते है । २४ निर्ग्रन्थता धारण करनेसे पहले पूर्ण विचार कीजिये, इसे अपनाकर दोष लगानेकी अपेक्षा अल्पारम्भी बने । २५ समर्थं पुरुष कल्याणका स्वरूप पुकार पुकारकर कह गये हैं, परन्तु किसी विरलेको ही वह यथार्थ समझमे आया है । २६ स्त्रीके स्वरूपपर होनेवाले मोहको रोकनेके लिये उसके त्वचारहित रूपका वारम्वार चिंतन करना योग्य है । २७ कुपात्र भी सत्पुरुपके रखे हुए हाथसे पात्र हो जाता है, जैसे छाछसे शुद्ध किया हुआ सखिया शरीरको नीरोग करता है । २८ आत्माका सत्यस्वरूप केवल शुद्ध सच्चिदानदमय है, फिर भी भ्रातिसे भिन्न भासित होता है, जैसे कि तिरछी आँख करनेसे चंद्र दो दिखायी देते हैं । १ देखें महानीति, आक १९
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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