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________________ १७ वों वर्ष १२५ उत्पत्तिमे 'नास्ति' की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'जीव अनादि अनन्त है।' व्ययमे 'नास्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'इसका किसी कालमे नाश नही है।' ध्रुवतामे 'नास्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'एक देहमे वह पदेवके लिये रहनेवाला नही है।' शिक्षापाठ ९० : तत्त्वावबोध--भाग १ उत्पत्तिमे 'गस्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'जीवका मोश होने नक एक देहमेसे च्युत होकर वह दूसरी देहमे उत्पन्न होता है।' व्ययमे 'अस्ति'की जो याजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'वह जिम देहमेसे आया वहाँ से व्ययको प्राप्त हुआ. अथवा प्रतिक्षण इसकी आत्मिक ऋद्धि विषयादि मग्णसे रुद्ध हो रही है', इस प्रकार व्ययको घटित कर सकते हैं। ध्रुवतामे 'अस्ति'की जो योजना की है वह यो यथार्थ हो सकती है कि 'द्रव्यकी अपेक्षा जीव किसी कालमे नाशरूप नही है, त्रिकाल सिद्ध है।' मैं समझता हूँ कि अब इस प्रकारसे योजित दोष भी दूर हो जायेंगे । १ जीव व्ययरूप नही हैं, इसलिये ध्रुवता सिद्ध हुई। यह पहला दोष दूर हुआ। २. उत्पत्ति, व्यय और ध्रुवता ये न्यायसे भिन्न भिन्न सिद्ध हुए, इसलिये जीवका मत्यत्व सिद्ध हुआ, यह दूसरा दोष दूर हुआ। ३ जीवकी सत्यस्वरूपसे ध्रुवता सिद्ध हुई इसलिये व्यय चला गया। यह तीसरा दोष दूर हुआ। ४. द्रव्यभावसे जीवकी उत्पत्ति असिद्ध हुई । यह चौथा दोष दूर हुआ। ५ जीव अनादि सिद्ध हुआ, इसलिये उत्पत्तिसबधी पाँचवाँ दोष दूर हुआ। ६ उत्पत्ति असिद्ध हुई इसलिये कर्त्तासबधी छठा दोष दूर हुआ। ७ ध्रुवताके साथ व्यय लेनेमे अबाध हुआ इसलिये चार्वाकमिश्रवचनका साना दोप दूर हआ । ८ उत्पत्ति और व्यय पृथक् पृथक् देहमे सिद्ध हुआ, इसलिये केवल चार्वाकसिद्धान नामका आठवाँ दोष दूर हुआ। ९. से १४ शकाका पारस्परिक विरोधाभास दूर हो जानेसे चौदह तकके दोष दूर हो गये। १५ अनादि अनतता सिद्ध हो जानेसे स्याद्वादवचन सत्य हुआ, यह पद्रहवां दोष दूर हुआ । १६ कर्ता नही है, यह सिद्ध होनेसे जिनवचनकी सत्यता सिद्ध हुई, यह सोलहवॉ दोष दूर हुआ। १७ धर्म, अधम, देह आदिका पुनरावर्तन सिद्ध होनेसे सत्रहवाँ दोष दूर हुआ। १८ ये सब बातें सिद्ध होनेसे त्रिगुणात्मक माया असिद्ध हुई, यह अठारह्वा दोष दूर हुआ। शिक्षापाठ ९१ तत्वावबोध-भाग १० ___ मैं समझता हूँ कि आपको योजित योजनाका इससे समाधान हुआ होगा। यह कोई यथार्थ शैली घटित नही की है, तो भी इसमें कुछ भी विनोद मिल सकता है। इसपर विशेष विवेचन करनेके लिये बहुतसा वक्त चाहिये, इसलिये अधिक नही कहता, परन्तु एक दो सक्षिप्त बातें आपसे कहनी है, सो यदि इससे योग्य समाधान हुआ हो तो कहूँ। बादमे उनकी ओरसे मनमाना उत्तर मिला और उन्होंने कहा कि एक दो बातें जो आपको कहनी हो उन्हे सहर्ष कहे।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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