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________________ १२४ श्रीमद् राजचन्द्र शब्दोका अर्थ है । परन्तु श्रीमान गणधरोने तो ऐसा उल्लेख किया है कि इन वचनोको गुरुमुखसे श्रवण करनेसे पहलेके भाविक शिष्योको द्वादशागीका आशयपूर्ण ज्ञान हो जाता था। इसके लिये मैंने बहुत कुछ विचार किये, फिर भी मुझे तो ऐसा लगा कि यह होना असभव है, क्योकि अतीव सूक्ष्म माना हुआ सैद्धातिक ज्ञान इसमे कहाँसे समा सकता है ? इस सबधमे आप कुछ प्रकाश डाल सकेंगे ?" शिक्षापाठ ८८: तत्त्वावबोध-भाग ७ मैने उत्तरमे कहा कि इस कालमे तीन महाज्ञान परम्पराम्नायसे भारतमे देखनेमे नही आते, ऐसा होनेपर भी मैं कोई सर्वज्ञ या महाप्रज्ञावान नही हैं, फिर भी मैं सामान्य बुद्धिसे जितना विचार कर सकूँगा, उतना विचार करके कुछ समाधान कर सकूँगा ऐसा मुझे सभव लगता है। तब उन्होने कहा कि यदि ऐसा सभव हो तो यह त्रिपदी जीवपर 'ना' और 'हाँ' के विचारसे घटित करे । वह यो कि जीव क्या उत्पत्तिरूप है ? नही । जीव क्या व्ययरूप है ? नही । जीव क्या ध्रुवरूप है ? नही । इस तरह एक बार घटित करें। और दूसरी बार, जीव क्या उत्पत्ति रूप है ? हॉ। जीव क्या व्ययरूप है ? हॉ। जीव क्या ध्रुवरूप है ? हाँ । इस तरह घटित करें । ये विचार सारे मडलने एकत्र करके योजित किये है । यदि ये यथार्थ न कहे जा सकें तो अनेक प्रकारसे दूपण आ सकते हैं । जो वस्तु व्ययरूप हो वह ध्रुवरूप न हो, यह पहली शका । यदि उत्पत्ति, व्यय और ध्रुवता नही है तो जीवको किन प्रमाणोंसे सिद्ध करेंगे ? यह दूसरी शका | व्यय और ध्रवतामे परस्पर विरोधाभास है. यह तीसरी शका। जीव केवल ध्रव है तो उत्पत्तिमे जो 'हाँ' कही वह असत्य ठहरेगी. यह चौथा विरोध। उत्पत्तियक्त जीवका ध्रवभाव कहे तो उत्पत्ति किसने की ? यह पाँचवाँ विरोध । अनादिता जाती रहती है यह छठी शका | केवल ध्रुव-व्ययरूप है ऐसा कहे तो चार्वाकमिश्र वचन हुआ, यह सातवाँ दोष । उत्पत्ति और व्ययरूप कहेगे तो केवल चार्वाकका सिद्धात होगा, यह आठवॉ दोष । उत्पत्तिकी ना, व्ययकी ना और ध्रुवताको ना कहकर फिर तीनोकी हाँ कही इसके पुन रूपमे छ दोष । इस प्रकार कुल मिलाकर चौदह दोष हुए। केवल ध्रुवता चली जानेसे तीर्थकरके वचन खडित हो जाते हैं, यह पन्द्रहवाँ दोष । उत्पत्ति, ध्रुवता लेनेपर कर्ताकी सिद्धि हो जानेसे सर्वज्ञवचन खडित हो जाते है, यह सोलहवा दोष । उत्पत्ति-व्ययरूपसे पापपुण्यादिकका अभाव अर्थात् धर्माधर्म सबका लोप हो जाता है, यह सत्रहवाँ दोष । उत्पत्ति, व्यय और सामान्य स्थितिसे (केवल अचलता नही) त्रिगुणात्मक माया सिद्ध होती है, यह अठारहवाँ दोष । शिक्षापाठ ८९ : तत्त्वावबोध-भाग ८ ये कथन सिद्ध न होनेसे इतने दोष आते है । एक जैनमुनिने मुझे और मेरे मित्रमडलसे यो कहा था कि जैन सप्तभगो नय अपूर्व है, और इससे सर्व पदार्थ सिद्ध होते है। इसमे नास्ति-अस्तिके अगम्य भेद निहित है । यह कथन सुनकर हम सब घर आये, फिर योजना करते-करते इस लब्धिवाक्यको जीवपर योजित किया। मै मानता हूँ कि ऐसे नास्ति-अस्तिके दोनो भाव जीवपर घटित नही हो सकते। लब्धिवाक्य भी क्लेशरूप हो पडेगे । यद्यपि इस ओर मेरी कोई तिरस्कारकी दृष्टि नही है । इसके उत्तरमे मैंने कहा कि आपने जो नास्ति और अस्ति नय जीवपर घटित करनेका सोचा है वह सनिक्षेप शैलीसे नही है, इसलिये कदाचित् इसमेसे एकातिक पक्ष भी लिया जा सकता है । और फिर मै कोई स्यावाद शैलीका यथार्थ ज्ञाता नहीं हूँ। मन्दमतिसे लेश भाग जानता हूँ । नास्ति-अस्ति नयको भी आपने शैलीपूर्वक घटित नही किया है; इसलिये मै तर्कसे जो उत्तर दे सकता हूँ, उसे आप सुनें।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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