SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ श्रीमद् राजचन्द्र फिर मैने अपनी वातको सजीवित करके लब्धिके सवधमे कहा । आप इस लब्धिके संवधमे शंका करें या इसे क्लेशरूप कहे तो इन वचनोके प्रति अन्याय होता है। इसमे अति-अति उज्ज्वल आत्मिक शक्ति, गुरुगम्यता और वैराग्यकी आवश्यकता है । जब तक ऐसा नही है तब तक लब्धिके विपयमे शका अवश्य रहेगी । परतु मै समझता हूँ कि इस समय इस सवधमे कहे हुए दो शव्द निरर्थक नही होगे । वे ये हैं कि जैसे इस योजनाको नास्ति-अस्तिपर योजित करके देखा, वैसे इसमे भी बहुत सूक्ष्म विचार करना है। प्रत्येक देहको पृथक्-पृथक् उत्पत्ति, च्यवन, विश्राम, गर्भाधान, पर्याप्ति, इद्रिय, सत्ता, ज्ञान, संज्ञा, आयु, विषय इत्यादि अनेक कर्मप्रकृतियोको प्रत्येक भेदसे लेनेपर जो विचार इस लब्धिसे निकलते है वे अपूर्व है । जहाँ तक लक्ष पहुंचता है वहाँ तक सभी विचार करते है, परतु द्रव्यार्थिक और भावार्थिक नयसे सारी सृष्टिका ज्ञान इन तीन शब्दोमे निहित है उसका विचार कोई विरला ही करता है, वह सद्गुरुमुखकी पवित्र लब्धिके रूपमे जब आये तव द्वादशागीका ज्ञान किसलिये न हो ? 'जगत' ऐसा कहनेसे जैसे मनुष्य, एक घर, एक वास, एक गाँव, एक शहर, एक देश, एक खड, एक पृथ्वी इन सबको छोडकर असख्यात द्वीप समुद्र आदिसे भरपूर वस्तु एकदम कैसे समझ जाता है ? इसका कारण मात्र इतना ही है कि इस शब्दकी विशालताको उसने समझा है, किंवा लक्षकी अमुक विशालताको समझा है, जिससे 'जगत' यो कहते हो इतने बडे ममको समझ सकता है, इसी तरह ऋजु और सरल सत्पात्र शिष्य निर्ग्रन्थ गुरुसे इन तीन शब्दोकी गम्यता लेकर द्वादशागीका ज्ञान प्राप्त करते थे। और वह लब्धि अल्पज्ञतासे भी विवेकपूर्वक देखनेपर क्लेशरूप भी नही है । शिक्षापाठ ९२ : तत्वावबोध-भाग ११ इसी प्रकार नव तत्त्वके सबधमे है । जिस मध्यवयके क्षत्रियपुत्रने 'जगत अनादि है', यो बेधडक कहकर कर्ताको उडाया होगा, उस पुरुपने क्या कुछ सर्वज्ञताके गुप्त भेदके बिना किया होगा? इसी तरह जब आप इनकी निपिताके विषयमे पढेंगे तब अवश्य ऐसा विचार करेंगे कि ये परमेश्वर थे । कर्ता न था और जगत अनादि था, इसलिये ऐसा कहा । इनके अपक्षपाती और केवल तत्त्वमय विचार आपको अवश्य विशोधन करने योग्य हैं। जैनदर्शनके अवर्णवादी मात्र जैनदर्शनको नही जानते इसलिये अन्याय करते है । मैं समझता हूँ कि वे ममत्वसे अधोगतिको प्राप्त करेंगे । इसके बाद बहुत-सी बातचीत हुई। प्रसगोपात्त इस तत्त्वका विचार करनेका वचन लेकर मै सहर्ष वहाँसे उठा था। तत्त्वाववोधके सवधमे यह कथन कहा गया । अनंत भेदसे भरे हुए ये तत्त्वविचार जितने कालभेदसे जितने ज्ञेय प्रतीत हो उतने ज्ञेय करना, जितने ग्राह्य हो उतने ग्रहण करना और जितने त्याज्य दिखायी दें उतने त्यागना। इन तत्वोको जो यथार्थ जानता है वह अनत चतुष्टयसे विराजमान होता है यह मै सत्यतासे कहता हूँ। इन नव तत्त्वोके नाम रखनेमे भी मोक्षकी निकटताका अर्ध सूचन मालूम होता है। शिक्षापाठ ९३ : तत्त्वावबोध-भाग १२ यह तो आपके ध्यानमे है कि जीव, अजीव-इस अनुक्रमसे अतमे मोक्षका नाम आता है। अब इन्हे एकके बाद एक रखते जायें तो जीव और मोक्षको अनुक्रमसे आद्यत रहना पड़ेगा। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा, वध, मोक्ष ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy