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________________ ११६ श्रीमद् राजचन्द्र ४. सस्थानविचय-तीन लोकके स्वरूपका चिंतन करना। लोकस्वरूप सुप्रतिष्ठकके आकारका है, जोव-जोवमे मम्पूर्ण भरपूर है। अमख्यात योजनकी कोटानुकोटिसे तिरछा लोक हे, जहाँ असख्यात दोप-नमुद्र है । असत्यात ज्योतिपी, वाणव्यतर आदिके निवास है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी विचित्रता इसमें लगी हुई है । ढाई द्वीपमे जघन्य तीर्थंकर वीस, उत्कृष्ट एक सौ सत्तर होते है, तथा केवली भगवान और निग्रंथ मुनिराज विचरते है, उन्हे "वदामि, नमसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मगल, देवय, चेइय, पज्जुवासामि' इस प्रकार तथा वहाँ रहनेवाले श्रावक श्राविकाओका गुणगान करें। उस तिरछे लोकसे असल्यातगुना अधिक अवलोक हे। वहाँ अनेक प्रकारके देवताओंके निवास है। फिर ईपत् प्राग्भारा है। उसके बाद मुक्तात्मा विराजते है, उन्हे "वंदामि, यावत् पज्जुवासामि ।" उस ऊवलोकसे कुछ विशेप अधोलोक है, वहाँ अनन्त दु खसे भरे हुए नरकावास हे और भवनपतिके भवनादिक है । इन तीन लोकके सर्व स्थानकोको इस आत्माने सम्पक्त्वरहित करनीसे अनतवार जन्ममरण करके स्पर्श किया है, ऐसा जो चिंतन करना वह 'सस्थानविचय' नामका धर्मध्यानका चौथा भेद है। इन चार भेदोको विचारकर सम्यक्त्वसहित श्रुत और चारित्रधर्मकी आराधना करनी चाहिये जिससे ये अनंत जन्ममरण दूर हो । धर्मध्यानके इन चार भेदोको स्मरणमे रखना चाहिये। शिक्षापाठ ७५ : धर्मध्यान-भाग २ धर्मध्यानके चार लक्षण कहता है । १. आज्ञारुचि-अर्थात् वीतराग भगवानकी आज्ञा अगीकार करनेकी रुचि उत्पन्न होना । २. निसर्गरुचि-आत्मा स्वाभाविकरूपसे जातिस्मरणादि ज्ञानसे श्रुतसहित चारित्रधर्मको धारण करनेकी रुचि प्राप्त करे उसे निसर्गरुचि कहते हैं। ३. सूत्ररुचि-श्रुतज्ञान आर अनत तत्त्वके भेदोके लिये कहे हए भगवानके पवित्र वचनोका जिनमे गूंथन हुआ है, उन सूत्रोका श्रवण करने, मनन करने और भावसे पठन करनेकी रुचि उत्पन्न हो, उसे सूत्ररुचि कहते हैं। ४. उपदेशरुचिअज्ञानसे उपार्जित कोंको हम ज्ञानसे खपायें, तथा ज्ञानसे नये कर्मोंको न वॉवे, मिथ्यात्वसे उपाजित कोको सम्यक्भावसे खपायें और सम्यक् भावसे नये कर्मोको न बांधे, अवैराग्यसे उपार्जित कर्मोको वैराग्यसे खपायें और वैराग्यसे फिर नये कर्मोको न वाँधे, कपायसे उपार्जित कर्मोको कपायको दूर करके लपायें और क्षमादिसे नये कर्मोको न वांधे, अशुभयोगसे उपार्जित कर्मोंको शुभयोगसे खपायें और शुभयोगसे नये कोको न वां, पांच इन्द्रियोके स्वादरूप आत्रवसे उपार्जित कर्मोको सवरसे खपायें, और तपरूप. सवरसे नये कर्मोको न बाँचे, इसके लिये अज्ञानादिक आस्रव मागं छोड़कर ज्ञानादिक सवर मार्ग ग्रहण करने के लिये तीर्थंकर भगवानके उपदेशको सुननेकी रुचि उत्पन्न हो, उसे उपदेशरुचि कहते हैं। ये धर्मध्यानके चार लक्षण कहे गये। धर्मध्यानके चार आलबन कहता हूँ। १ वाचना, २ पृच्छना, ३ परावर्तना, ४ धर्मकया। १. याचना अर्थात् विनय सहित निर्जरा तथा ज्ञान प्राप्त करनेके लिये सूत्र-सिद्धातके मर्मके जानकार गुरु अथवा सत्पुरुषके समीप सत्र तत्त्वका वाचन लें, उसका नाम वाचनालबन है। २. पच्छना-अपूर्व गान प्राप्त करने के लिये, जिनेश्वर भगवानके मार्गको रोशन करनेके लिये तथा शकाशल्यके निवारणके लिये नथा अन्य तत्त्वोकी मध्यस्थ परीक्षाके लिये यथायोग्य विनय सहित गुरु आदिको प्रश्न पूछे. उसे पृच्छनालगन कहते है। ३. परावत्तंना-पूर्व में जो जिनभापित सूयार्थ पढे हो उन्हे स्मरणमे रसनेके लिये, निराके लिये शुद्ध उपयोग सहित शुद्ध सूत्रायंका वारवार स्वाध्याय करें, उसका नाम परावर्तनालपन है। ४. धर्मकया-वीतराग भगवानने जो भाव जैसे प्रणीत किये हैं. उन भावोको उसी तरह समझ फरले, गहण करके, विशेषरूपसे निश्चय करके, मका, कंवा ओर वितिगिच्छारहितल्पसे, अपनी निजराके रियसभामं उन भावोको उसी तरह प्रणीत करे, उसे धमकथालवन कहते हैं। इससे सुननेवाला और
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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