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________________ १७ या वर्ष भील-क्या कहूँ ? यहाँ वैसी एक भी वस्तु नही है। कुटुम्बी-भला ऐसा हो क्या ? ये शख, सोप, कौड़ा कैसे मनोहर पड़े है | वहाँ ऐसी कोई देखने लायक वस्तु थी? भील-नही, नही भाई, ऐसी वस्तु तो यहाँ एक भी नही है । उनके सौवे या हजारवे भाग जितनी भी मनोहर वस्तु यहाँ नही है। कुटुम्बी-तब तो तू चुपचाप बैठा रह, तुझे भ्रम हुआ है, भला, इससे अच्छा और क्या होगा? हे गौतम | जैसे यह भील राजवैभवसुख भोगकर आया था, और जानता भी था, फिर भी उपमायोग्य वस्तु न मिलनेसे वह कुछ कह नही सकता था, वैसे हो अनुपमेय मोक्षको, सच्चिदानन्द स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुखके असख्यातवें भागके भी योग्य उपमेय न मिलनेसे मैं तुझे नहीं कह सकता। मोक्षके स्वरूपके विषयमे शका करनेवाले तो कुतर्कवादी हैं, उन्हे क्षणिक सुखसंबधी विचारके कारण सत्सुखका विचार नही आता । कोई आत्मिकज्ञानहीन यो भी कहता है कि इससे कोई विशेष सुखका साधन वहाँ है नही, इसलिये अनत अव्यावाध सुख कह देते हैं। उसका यह कथन' विवेकपूर्ण नही है । निद्रा प्रत्येक मानवको प्रिय है, परन्तु उसमे वह कुछ जान या देख नहीं सकता, और यदि कुछ जाननेमे आये तो मात्र स्वप्नोपाधिका मिथ्यापना आता है जिसका कुछ असर भी हो। वह स्वप्नरहित निद्रा जिसमे सूक्ष्म एव स्थूल सब जाना और देखा जा सके, और निरुपाधिसे शात ऊँघ ली जा सके तो उसका वह वर्णन क्या कर सकता है ? उसे उपमा भी क्या दे सकता है ? यह तो स्थूल दृष्टात है, परन्तु बाल, अविवेकी इस परसे कुछ विचार कर सके, इसलिये कहा है। भीलका दृष्टात, समझानेके लिये भाषाभेदके फेरफारसे तुम्हे कह बताया। शिक्षापाठ ७४ : धर्मध्यान-भाग १ भगवानने चार प्रकारके ध्यान कहे है-आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । पहले दो ध्यान त्यागने योग्य है । पिछले दो ध्यान आत्मसार्थकरूप है । श्रुतज्ञानके भेदोको जाननेके लिये, शास्त्रविचारमे कुशल होनेके लिये, निग्रंथप्रवचनका तत्त्व पानेके लिये, सत्पुरुपोके द्वारा सेवन करने योग्य, विचारने योग्य और ग्रहण करने योग्य धर्मध्यानके मुख्य सोलह भेद है। पहले चार भेद कहता हूँ। १. आणाविजय (आज्ञाविचय), २ अवायविजय (अपायविचय), ३ विवागविजय (विपाकविजय), ४ सठाणविजय (सस्थानविचय)। १. आज्ञाविचय-आज्ञा अर्थात् सर्वज्ञ भगवानने धर्मतत्त्व सम्बन्धी जो-जो कहा है वह वह सत्य है, इसमे शका करने योग्य नही है । कालकी होनतासे, उत्तम ज्ञानका विच्छेद होनेसे, बुद्धिका मदतासे या ऐसे अन्य किसी कारणसे मेरी समझमे वह तत्त्व नही आता। परन्तु अर्हत भगवानने अशमात्र भी मायायुक्त या असत्य कहा हो नही है, क्योकि वे नीरागी, त्यागी और नि स्पृहो थे। मृषा कहनेका उन्हे कोई कारण न था, और वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होनेसे अज्ञानसे भी मघा नही कहेगे । जहाँ अज्ञान ही नहीं है, वहाँ तत्सवधी मृषा कहाँसे होगा ? ऐसा जो चिंतन करना वह 'आज्ञाविचय' नामका प्रथम भेद है । २. अपायविचय-राग, द्वेष, काम, क्रोध इनसे जो दुख उत्पन्न होता है उसका जो चिंतन करना वह 'अपायविचय' नामका दूसरा भेद है । अपाय अर्थात् दु ख । ३. विपाकविचय-मैं क्षण-क्षणमे जो जो दुःख सहन करता हूँ, भवाटवीमे पर्यटन करता हूँ, अज्ञानादिक पाता हूँ, वह सब कर्मके फलके उदयसे है, इस प्रकार जो चिंतन करना वह धर्मध्यानका तीसरा भेद है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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