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________________ १७ वाँ वर्ष ११७ श्रद्धा करनेवाला दोनो भगवानकी आज्ञाके आराधक होते है। ये धर्मध्यानके चार आलवन कहे गये। धर्मध्यानकी चार अनुप्रेक्षा कहता हूँ । १ एकत्वानुप्रेक्षा, २ अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा, ४. ससारानुप्रेक्षा । इन चारोका बोध बारह भावनाके पाठमे कहा जा चुका है वह तुम्हे स्मरणमे होगा। शिक्षापाठ ७६ : धर्मध्यान-भाग ३ धर्मध्यानको पूर्वाचार्योने और आधुनिक मुनीश्वरोने भी विस्तारपूर्वक बहुत समझाया है । इस ध्यानसे आत्मा मुनित्वभावमे निरतर प्रवेश करता है। जो जो नियम अर्थात् भेद, आलबन और अनुप्रेक्षा कहे है वे बहुत मनन करने योग्य है। अन्य मुनीश्वरोके कथनानुसार मैंने उन्हे सामान्य भाषामे तुम्हे कहा है, इसके साथ निरतर यह ध्यान रखनेकी आवश्यकता है कि इनमेसे हमने कौनसा भेद प्राप्त किया, अथवा किस भेदकी ओर भावना रखी है ? इन सोलह भेदोमेसे कोई भी भेद हितकारी और उपयोगी है, परतु जिस अनुक्रमसे लेना चाहिये उस अनुक्रमसे लिया जाये तो वह विशेष आत्मलाभका कारण होता है। ___ कितने ही लोग सूत्र-सिद्धातके अध्ययन मुखाग्र करते हैं, यदि वे उनके अर्थ और उनमे कहे हुए मूलतत्त्वोकी ओर ध्यान दें तो कुछ सूक्ष्मभेदको पा सकते हैं। जैसे केलेके पत्रमे, पत्रमे पत्रको चमत्कृति है वैसे ही सूत्रार्थमे चमत्कृति है। इस पर विचार करनेसे निर्मल और केवल दयामय मार्गका जो वीतरागप्रणीत तत्त्वबोध है उसका बीज अतःकरणमे अकुरित हो उठेगा। वह अनेक प्रकारके शास्त्रावलोकनसे, प्रश्नोत्तरसे, विचारसे और सत्पुरुषके समागमसे पोषण पाकर बढकर वृक्षरूप होगा। फिर वह वृक्ष निर्जरा और आत्मप्रकाशरूप फल देगा। श्रवण, मनन और निदिध्यासनके प्रकार वेदातवादियोने बताये है, परतु जैसे इस धर्मध्यानके पृथक्-पृथक् सोलह भेद यहाँ कहे है वैसे तत्त्वपूर्वक भेद किसो स्थानमे नही है, ये अपूर्व है। इनसे शास्त्रको श्रवण करनेका, मनन करनेका, विचारनेका, अन्यको बोध करनेका शंका कखा दूर करनेका, धर्मकथा करनेका, एकत्व विचारनेका, अनित्यता विचारनेका, अशरणता विचारनेका, वैराग्य पानेका, ससारके अनत दुखका मनन करनेका और वीतराग भगवानकी आज्ञासे सारे लोकालोकका विचार करनेका अपूर्व उत्साह मिलता है । भेद-प्रभेद करके इनके फिर अनेक भाव समझाये हैं। इनमेसे कतिपय भावोको समझनेसे तप, शाति, क्षमा, दया, वैराग्य और ज्ञानका बहुत बहुत उदय होगा। । तुम कदाचित् इन सोलह भेदोका पठन कर गये होगे, फिर भी पुन पुन उसका परावर्तन करना । शिक्षापाठ ७७ : ज्ञानसंबधी दो शब्द--भाग १ जिसके द्वारा वस्तुका स्वरूप जाना जाता है वह ज्ञान है। ज्ञान शब्दका यह अर्थ है । अब यथामति यह विचार करना है कि इस ज्ञानकी कुछ आवश्यकता है? यदि आवश्यकता है तो इसकी प्राप्तिके कुछ साधन है ? यदि साधन है तो उसके अनुकूल देश, काल और भाव हे ? यदि देशकालादि अनुकूल हैं तो कहाँ तक अनुकूल है ? विशेषमे यह भी विचार करना है कि इस ज्ञानके भेद कितने हे ? जानने योग्य क्या है ? इसके फिर कितने भेद हैं ? जाननेके साधन कौन कौनसे है ? उन साधनोको किस-किस मार्गसे प्राप्त किया जाता है ? इस ज्ञानका उपयोग या परिणाम क्या है ? यह सब जानना आवश्यक है। १ ज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? पहले इस विषयमे विचार करें। इस चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोकमे चतुर्गतिमे अनादिकालसे सकर्मस्थितिमे इस आत्माका पर्यटन हे । निमेपमात्र भी सुखका जहाँ भाव
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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