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________________ [१७] असंगताक़े बिना परम दु ख होता है । यम अतकालमे प्राणीको दुःखदायक नही लगता होगा, परन्तु हमे सग दुखदायक लगता है ।" -आक २१७ " समय समय पर अनन्तगुणविशिष्ट आत्मभाव बढता हो ऐसी दशा रहती है, जिसे प्राय भाँपने नही दिया जाता, अथवा भॉप सकनेवालेका प्रसग नही है ।" --आक ३१३ "देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योकि हम भी निश्चयसे उसी स्थितिकी प्राप्त करनेवाले हैं, यो हमारा आत्मा अखण्डरूपसे कहता है, और ऐसा ही है, अवश्य ऐसा ही है । पूर्ण वीतरागकी चरणरज निरन्तर मस्तकपर हो, ऐसा रहा करता है । अत्यन्त विकट ऐसा वीतरागत्व अत्यन्त आश्चर्यकारक है, तथापि यह स्थिति प्राप्त होती है, सदेह प्राप्त होती है, यह निश्चय है, प्राप्त करनेके लिये पूर्ण योग्य है, ऐसा निश्चय है । सदेह ऐसे हुए बिना हमारी उदासीनता दूर हो ऐसा मालूम नही होता और ऐसा होना सम्भव है, अवश्य ऐसा ही है ।" -आक ३३४ "मनमे वारवार विचार करनेसे निश्चय हो रहा है कि किसी भी प्रकारसे उपयोग फिरकर अन्यभावमे ममत्व नही होता, और अखण्ड आत्मध्यान रहा करता है ।" -आक ३६६ " हम कि जिनका मन प्राय क्रोधसे, मानसे, मायासे, लोभसे, हास्यसे, रतिसे, शोकसे, जुगुप्सासे या शब्द आदि विषयोसे अप्रतिबद्ध जैसा है, कुटुम्बसे, धनसे, पुत्रसे, या देहसे मुक्त जैसा है, ऐसे मनको भी सत्संगमे बाँध रखनेकी अत्यधिक इच्छा रहा करती है । " अरतिसे, भयसे, 'वैभव' से, स्त्रीसे —ओक ३४७ "जगह जगह पर ऐसे असग, अप्रतिबद्ध स्वदशा सूचक वचन उनकी अतरगचर्या या आत्ममग्नताका अवश्य दिग्दर्शन कराते हैं । उनका ज्ञान एवं वैराग्यकी अखंड ' धारारूप अतरंग पुरुषार्थ- पराक्रम बाह्यदृष्टि भाँपा नही जा सकता । इसीलिये कहा है कि “मुमुक्षुके नेत्र महात्माको पहचान लेते है ।" अंतरंग चर्या तक दृष्टि जानेके लिये मुमुक्षुतारूप नेत्रोकी जरूरत है । जैसे जनक राजा राज्य करते हुए भी विदेहीरूपसे रहते थे और त्यागी सन्यासियोसे भी उत्कृष्ट असग अप्रतिबद्ध विदेही दशामे रहकर आत्मानदमे मग्न थे तथा भरत महाराजा चक्रवर्तीपदका समर्थ ऐश्वर्य तथा छ खण्डके साम्राज्यकी उपाधि वहन करते हुए भी अंतरग ज्ञान-वैराग्यके बलसे आत्मदशा सभालते हुए अलिप्तभावमे रहकर आत्मानंदकी मजा लूटते थे, वैसे ये महात्मा भी, प्रतिसमय अनतगुणविशिष्ट आत्मभाव वर्धमान होता रहे ऐसी बलवान त्यागवैराग्यको अखंण्ड अप्रमत्तधारासे किसी अपूर्व अतरग चर्यासे रागद्वेष आदिका पराजय करके मोक्षपुरी पहोचनेके लिये मानो वायुवेगसे, त्वरित गति से दौड़े, न जा रहे हो । यो अत्यन्त उदासीनता पूर्वक आत्मानदमें लीन, अन्तर्मग्न रहते थे । ऐसा उनके इस ग्रन्थमे सग्रहित लेखोमे-जगह - जगहपर दृष्टिगोचर होने योग्य हैं, और अनेक शास्त्रोंके पठनसे भी जो लाभ प्राप्त होना मुश्किल है, वह लाभ इस एक ही ग्रन्थके शातभावसे पठन, मनन, परिशीलन व अभ्यास द्वारा सरलतासे प्राप्त कर जिज्ञासु अपनेको धन्यरूप, कृतार्थरूप कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त उनकी अतरंग असग, अप्रतिबद्ध, जीवन्मुक्त, वैराग्यपूर्ण, विदेही, वीतराग, समाधिबोधिमय, अद्भुत, अलौकिक, अचित्य, आत्ममग्न, परमशात, शुद्ध, सच्चिदानंदमय सहजात्मदशाको झांकी होनेसे, सद्गुणानुरागीको तो अपनी मोहाधीन पामर दशा देखकर समस्त गर्व नष्ट होकर ऐसी उच्चतम दशाके प्रति सहज ही सिर झुके बिना नही रहता । और उस अलौकिक असंग दशाके प्रति प्रेम, प्रतीति, भक्ति प्रगट होकर उनके शुद्ध चैतन्यस्वरूप, परमार्थस्वरूप, सत्यस्वरूपकी पहचान होने से उनमे आविर्भूत हुए शुद्ध आत्मदर्शन, आत्मज्ञान व आत्मरमणतारूप रत्नत्रयादि आत्मिक गुण जो साक्षात् मूर्तिमान मोक्ष
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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