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________________ [१८] मार्ग है, उसके प्रति अत्यन्त प्रमोद, प्रेम एवं उल्लास आने योग्य है। अन्तमे, अनादिसे अप्रगट जो अपना परमात्मस्वभाव है उसका भी भान होता है और उसे प्रगट करनेका लक्ष्य और पुरुषार्थ जागृत होनेपर, आत्मा परमात्मा होकर परम श्रेयको प्राप्तकर शाश्वतपदमे स्थित होनेरूप भाग्यशाली हो ता तकका सन्मार्ग और सत्साधन सप्राप्त होने योग्य है । मुनि श्री लघुराज स्वामी, श्री सौभाग्यभाई, श्री जूठाभाई, श्री अबालालभाई आदि उज्ज्वल आत्मा इस सद्गुणानुरागसे मुमुक्षुतारूप नेत्र अथवा अलौकिक दृष्टि पाकर श्रीमद्की सच्ची पहचान करनेवाले भाग्यशाली हुए और फलस्वरूप आत्मज्ञानादि गुणोसे विभूषित होकर स्वपरका श्रेय कर गये, यह प्रत्यक्ष दृष्टातरूप है। सत्पदाभिलाषी सज्जनोको सत्पदकी साधनामें इस अत्युत्तम सद्ग्रन्थका विनय और विवेकपूर्वक सदुपयोग आत्मश्रेय साधनमे प्रबल उपकारी हो यही अभ्यर्थना। जेना प्रतापे अंतरे परमात्म पूर्ण प्रकाशतो, जेयी अनादिनो महा मोहांधफार टळी जतो। वोधि समाधि शाति सुखनो सिंधु जेयो अछळतो, ते राजचद्र प्रशान्त फिरणो उर अम उजाळजो ॥ श्रीमद् राजचद्र आश्रम, अगास ता० १-१-६४, स० २०२० पौष वदी २ । सतसेवक रावजीभाई छ देसाई प्रस्तुत संस्करण हिन्दी मे श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत नामक इस वृहद् ग्रन्थ को आश्रम द्वारा प्रकाशित करते हुए हमे प्रसन्नता हो रही है। हिन्दी भाषी जिज्ञासु मुमुक्षुओ ने जिस उत्साह से इस ग्रन्थ को स्वीकारा है उसमे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्रीमद् राजचन्द्र के अगाध आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति लोगो की श्रद्धा वढ रही है। श्रीमद् राजचन्द्र जी के वचन दार्शनिक होकर भी सम्पूर्ण मुक्ति मार्ग की प्राप्ति मे सर्वथा व्यवहारिक और अन्तर को स्पर्श करने मे अद्वितीय है। जैसे किसी भी भाषां के लेखक की कृतियो का यथार्थ भाव उसी भापा मे आत्मसात् किया जा सकता है वैसे ही श्रीमद् जी के वचनो का सही भाव उन्ही की भाषा गुजराती मे और सत्सग मे बैठकर समझा जा सकता है। फिर भी यह हिन्दी अनुवाद तैयार करने में श्रीमद् के वचनो के अध्येता' और योग्य व्यक्तियो का सहयोग मिला है जिससे मुमुक्षुओ को समझने मे सरलता आयेगी। फिर भी इतना निवेदन है कि जो मुमुक्ष गुजराती मे श्रीमद् राजचन्द्र जी के वचनो के अभ्यासी रहे है ऐसे हिन्दी भापी आत्मार्थीजनो के सान्निध्य मे इन वचनो का स्वाध्याय किया जाय तो अधिक लाभदायी होगा। प्रस्तुत ग्रन्थ सम्बन्धी विस्तृत जानकारी जो पिछली आवृत्तियो की प्रस्तावना मे दी गई है। मुमुक्षुओ के अवलोकनार्थ इसके साथ प्रकाशित है। इस आत्मउद्धारक ग्रन्थ को सावधानीपूर्वक, विनय, विवेक सहित सदुपयोग करने का निवेदन है। -प्रकाशक ता १-७-९१, स २०४७'---
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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