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________________ [१६] उनकी अमृततुल्य अमूल्य वाणी हमे संप्राप्त हुई है यही हमारा महाभाग्य है। उसके पठन, मनन और परिशीलनसे हम अपना श्रेय कर लें तो ही उसकी प्राप्तिकी सार्थकता है । . उनका जो कुछ साहित्य उपलब्ध है वह सारा इस ग्रन्थमे प्रसिद्ध किया गया है। यह साहित्य तत्त्वज्ञान या अध्यात्मके क्षेत्रमे अत्युत्तम कक्षाका अमूल्य साहित्य है। तत्त्वरसिकोकी तत्त्वपिपासाके सतोषके लिये अथवा आत्मार्थियोको आत्मोन्नतिमे प्रगतिमान होनेके लिये गूर्जर भाषामे यह एक अपूर्व साहित्य है। मोक्षार्थियोको निज शुद्ध सहज आत्मतत्त्वकी उपासनासे परमानदमय मोक्षमहलमे सुगमतासे चढनेके लिये यह एक दुषमकालमे अनोखा ही अवलम्बन है जो सोपान समान उपकारी हो सकता है। इसमे विविध पारमार्थिक विषयोको छूनेवाला, मुख्यत मोक्षमार्गको स्पष्टतासे और सुगमतासे दर्शानेवाला, अमूल्य यत्र-तत्र बिखरे हुए वचनरत्नोके प्रकाशसे सर्वत्र चमकता हुआ, रत्नाकरकी तरह अगाध और सर्वत्र शातरसमित उच्चतम आध्यात्मिक साहित्य भरा पड़ा है, जो शोधकके लिये अमूल्य रत्नत्रयकी प्राप्तिसे परमश्रेयको प्राप्त करानेवाले निधान समान है। यह साहित्य तत्त्वसाधकोको परमानदकी साधनामे सहायक बनकर परम श्रेयका कारण होओ। अथवा विदग्धमुखमडन भवतु-विद्वानोके मुखका आभूषणरूप होओ। 'अज्ञानवश बाह्यदृष्टिसे, लांकिकभावसे, वैसे किसी आग्रहसे या सकुचित मनोवृत्तिसे यदि श्रीमद्को मात्र गृहस्थ, जौहगे या कविके रूपमे पहचाननेकी क्वचित् भूल होती हो तो कुछ गुणानुराग या प्रमोदभावसे, सत्यको खोजनेकी एवं स्वीकार करनेकी विशाल दृष्टि रखकर आग्रहरहित होकर इस ग्रन्थका अवलोकन या अभ्यास करेगे तो अवश्य इतना तो दृष्टिगोचर होगा ही कि श्रीमद् कोई सामान्य कोटिके मनुष्य नही, प्रत्युत् ईश्वर कोटिके मनुष्य है अथवा वे मनुष्यदेहमे परमात्मा, परम ज्ञानावतार, साक्षात् धर्ममूर्तिरूपसे ही भारतको विभूषित कर गये है। पूर्वकालमे अनेक भवोमे आराधित योगके फलस्वरूप इस भवमे अपूर्व आत्मसमाधि साध्य करनेवाले कोई अद्भुत योगोश्वर ही हैं । "एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषकी प्रेमसपत्तिके विना हमे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, हमे किसी पदार्थमे रुचिमात्र नही रही हैं, कुछ प्राप्त करनेकी इच्छा नही होती, व्यवहार कैसे चलता है इसका भान नही है, जगतं किस स्थितिमे है इसकी स्मृति नहीं रहती, शत्रुमित्रमे कोई भेदभाव नही रहा; कौन शत्रु है और कौन मित्र है, इसका ख्याल रखा नही जाता, हम देहधारी है या नही इसे जब याद करते हैं तब मुश्किलसे जान पाते है, हमे क्या करना है, यह किसीसे जाना नही जा सकता।" -आक २५५ "किसी भी प्रकारसे विदेही दशाके बिनाका, यथायोग्य जीवन्मुक्तदशारहित और यथायोग्य निग्रंथदशा रहित एक क्षणका जीवन भी देखना जीवको सुलभ नही लगता। एक पर राग और एक पर द्वेष ऐसी स्थिति एक रोममे भी उसे प्रिय नहीं है। " -आक १३४ 'चैतन्यका निरन्तर अविच्छिन्न अनुभव प्रिय है, यही चाहिये है। दूसरी कोई स्पृहा नही रहती। रहती हो तो भी रखनेकी इच्छा नही है । एक 'तू ही, तू ही' यही यथार्थ अस्खलित प्रवाह चाहिये।" . -आक १४४ "निरजनपदको समझनेवालेको निरजन कैसी स्थितिमे रखते है, यह विचार करते हुए अकल गति पर गभीर एव समाधियुक्त हास्य आता है | अब हम अपनी दशाको किसी भी प्रकारसे नहीं कह सकेंगे, तो फिर लिख कैसे सकेंगे?" " मुझे भी असगता बहुत ही याद आती है, और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस - -आक १८७
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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