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________________ [१५] खाते, बैठते, सोते प्रत्येक क्रिया करते उनमे वैराग्य तो होता ही। किसी समय इस जगतके किसी भी वैभवके प्रति उन्हे मोह हुआ हो ऐसा मैंने नही देखा । " यह वर्णन सयमीमे सभवित है। बाह्याडबरसे मनुष्य वीतराग- नही हो सकता। वीतरागता आत्माकी प्रसादी है । अनेक जन्मोके प्रयत्नसे मिल सकती है ऐसा प्रत्येक व्यक्ति अनुभव कर सकता है । रागभावोको दूर करनेका प्रयत्न करनेवाला जानता है कि रागरहित होना कितना कठिन है.? यह रागरहित दशा कविको स्वाभाविक थी, ऐसा मुझ-पर प्रभाव पड़ा था। .. । मोक्षको प्रथम सीढी वीतरागता है। जब तक जगतकी एक भी वस्तुमे मन धंसा हुआ है, तब तक मोक्षकी बात कैसे रुचे ? अथवा रुचे तो केवल कानको ही-अर्थात् जैसे हमे अर्थ जाने-समझे बिना किसी संगीतका केवल स्वर ही रुव जाये वैसे । ऐसे मात्र कर्णप्रिय आनन्दसे मोक्षानुसारी वर्तन आते तो बहुत काल बीत जायें । अन्तर्वैराग्यके बिना मोक्षको लगन नही होती । ऐसी वैराग्यकी लगन कविको थी। . । इसके अलावा इनके जीवनमेसे दो मुख्य बातें सीखने जैसी हैं--सत्य और अहिंसा। स्वय जिसे सच्चा मानते थे वही कहते हैं और तदनुसार ही आचरण करते थे । इनके जीवनमेसे ये चार बातें ग्रहण की जा सकती है (१). शाश्वत वस्तुमे तन्मयता, (२) जीवनकी सरलता; समस्त ससारके साथ एक सी वृत्तिसे व्यवहार; (३) सत्य और (४) अहिंसामय जीवन ।" . . . . . . मात्र क्लेश और दु.खके, सागररूप इस असार ससारमे जन्म-जरा-मरण, आधि-व्याधि-उपाधि आदि त्रिविध तापमय दुखदावानलसे प्राय सभी जीव सदैव जल रहे है ।। उससे बचनेवाले ज्ञान और वैराग्यकी मूर्ति समान, परमशातिके धामरूप मात्र एक आर्षद्रष्टा तत्त्ववेत्ता स्वरूपनिष्ठ महापुरुष ही भाग्यशाली है । उन्हीकी शरण, उन्हीकी वाणीका अवलबन-यही त्रिलोकको त्रिविध तापाग्निसे बचानेके लिये समर्थ उपकारक है.1. - । । "मायामय अग्निसे चौदह राजूलोक प्रज्वलित है। उस मायामे जीवकी बुद्धि अनुरक्त हो रही है, और इस कारणसे जोव भी उस त्रिविध-ताप-अग्निसे जला करता है, उसके लिये परम कारुण्यमूर्तिका उपदेश ही परम शीतल जल है, तथापि जीवको चारो ओरसे अपूर्ण पुण्यके कारण उसकी प्राप्ति होना दुर्लभ हो गया है।" -आक २३८ "तत्त्वज्ञानकी गहरी . गुफ़ाका दर्शन करने जायें तो वहाँ नेपथ्यमेसे ऐसी ध्वनि हो निकलेगी कि आप कौन है ? कहाँसे आये हैं ? क्यो आये हैं ? आपके पास यह सब क्या है ? आपको अपनी प्रतीति है ? आप विनाशी, अविनाशी अथवा कोई त्रिराशी है ? ऐसे अनेक प्रश्न उस ध्वनिसे हृदयमे प्रवेश करेंगे। ओर इन प्रश्नोंसें जव आत्मा घिर गया तब फिर दूसरे विचारोके लिये बहुत ही थोडा अवकाश रहेगा। यद्यपि इन विचारोसे ही अतमे सिद्धि हैं इन्ही विचारोके मननसे अनतकालकी उलझन दूर होनेवाली है बहुतसे आर्य पुरुष इसके लिये विचार कर गये है, उन्होने इस पर अधिकाधिक मनन किया है । जिन्होने आत्माकी शोध करके, उसके अपार मार्गकी बहुतोको प्राप्ति करानेके लिये अनेक क्रम बांधे है, वे महात्मा जयवान हो । और उन्हे त्रिकाल नमस्कार हो ।' -आक ८३ यो ऐसे समर्थ तत्त्वविज्ञानी स्वरूपनिष्ठ महापुरुषको अनुभवयुक्त वाणीका अवलम्बन कोई महाभाग्यके योगसे ही प्राप्त होने योग्य है। ' तत्त्वजिज्ञासुओकी ज्ञानपिपासाको परितृप्त करनेवाले और आत्मार्थियोंके हृदयमे आत्मज्योति जगानेवाले ऐसे एक समर्थ तत्त्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्र इस कालमे हमारे महाभाग्यसे प्रगट हुए हैं।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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