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________________ श्रीमद राजचन्द्र वैराग्य जो इस कडवे विपाककी औषध है, उसे कड़वा माना, यह भी अविवेक है । ज्ञान, दर्शन आदि गुणोको अज्ञान और अदर्शनने घेरकर जो मिश्रता कर डाली है उसे पहचान कर भाव अमृतमे आना, इसका नाम विवेक है । अब कहो कि विवेक कैसी वस्तु ठहरी ? लघु शिष्य--अहो । विवेक ही धर्मका मूल और धर्मरक्षक कहलाता है, यह सत्य है । आत्मस्वरूपको विवेकके बिना पहचाना नही जा सकता, यह भी सत्य है | ज्ञान, शील, धर्म, तत्त्व और तप ये सब विवेकके बिना उदयको प्राप्त नही होते, यह आपका कहना यथार्थ है। जो विवेकी नही है वह अज्ञानी और मन्द है। वही पुरुष मतभेद और मिथ्यादर्शनमे लिपटा रहता है। आपकी विवेकसम्बन्धी शिक्षाका हम निरन्तर मनन करेंगे। शिक्षापाठ ५२ : ज्ञानियोने वैराग्यका बोध क्यों दिया? ससारके स्वरूपके सम्बन्धमे पहले कुछ कहा गया है वह तुम्हारे ध्यानमे होगा । ___ ज्ञानियोने इसे अनन्त खेदमय, अनन्त दुखमय, अव्यवस्थित, चलविचल और अनित्य कहा है। ये विशेषण लगानेसे पहले उन्होने ससारसम्बन्धी सम्पूर्ण विचार किया है, ऐसा मालूम होता है । अनन्त भवोका पर्यटन, अनन्त कालका अज्ञान, अनन्त जीवनका व्याघात, अनन्त मरण और अनन्त शोकसे आत्मा ससारचक्रमे भ्रमण किया करता है। ससारकी दीखती हई इन्द्रवारुणी जैसी सुन्दर मोहिनीने आत्माको सम्पूर्ण लीन कर डाला है। इस जैसा सुख आत्माको कही भी भासित नही होता । मोहिनीसे सत्य सुख और उसके स्वरूपको देखनेकी इसने आकाक्षा भी नही को है। पतगकी जैसे दीपकके प्रति मोहिनी है वैसे आत्माकी ससारके प्रति मोहिनी है । ज्ञानी इस ससारको क्षणभरके लिये भी सुखरूप नही कहते । इस ससारकी तिलभर जगह भी जहरके बिना नही रही है। एक सूअरसे लेकर एक चक्रवर्ती तक भावकी अपेक्षासे समानता है, अर्थात् चक्रवर्तीकी ससारमे जितनी मोहिनी है उतनी ही बल्कि उससे अधिक मोहिनी सूअरकी है। चक्रवर्ती जैसे समग्र प्रजापर अधिकार भोगता है वैसे उसकी उपाधि भी भोगता है । सूअरको इसमेसे कुछ भी भोगना नही पड़ता । अधिकारकी अपेक्षा उलटे उपाधि विशेष है। चक्रवर्तीका अपनी पत्नीके प्रति जितना प्रेम होता है, उतना ही बल्कि उससे विशेष सूअरका अपनी सूअरनीके प्रति प्रेम रहा है। चक्रवर्ती भोगमे जितना रस लेता है उतना ही रस सूअर भी मान बैठा है। चक्रवर्तीको जितनी वैभवकी बहुलता है, उतनी ही उपाधि है। सूअरको उसके वैभवके अनुसार उपाधि है। दोनो उत्पन्न हुए हैं और दोनो मरनेवाले हैं। इस प्रकार अति सूक्ष्म विचार करनेपर क्षणिकता, रोग और जरासे दोनो ग्रसित है। द्रव्यसे चक्रवर्ती समर्थ है, महापुण्यशाली है, सातावेदनीय भोगता है, और सूअर बेचारा असातावेदनीय भोग रहा है। दोनोको असाता-साता भी है, परन्तु चक्रवती महासमर्थ है। परन्तु यदि वह जीवनपर्यन्त मोहाध रहा तो सारी बाजी हार जाने जैसा करता है। सूअरका भी यही हाल है। चक्रवर्ती शलाकापुरुष होनेसे सूअरसे इस रूपमें उसकी तुलना ही नही है, परन्तु इस स्वरूपमे है । भोग भोगनेमे भी दोनो तुच्छ हैं, दोनोंके शरीर माँस, मज्जा आदिके हैं । ससारको यह उत्तमोत्तम पदवी ऐसी है, उसमे ऐसा दुख, क्षणिकता, तुच्छता और अन्धता रहे है तो फिर अन्यत्र सुख किसलिये मानना चाहिये? ये सुख नही हैं, फिर भी सुख मानो तो जो सुख भयवाले और क्षणिक है वे दुःख हो है। अनन्त ताप, अनन्त शोक, अनन्त दुख देखकर ज्ञानियोने इस संसारको पीठ दी है, यह सत्य है। इस ओर पीछे मुडकर देखने जैसा नही है, वहाँ दु.ख, दुःख और दुःख ही है। दुखका यह समुद्र है। वैराग्य ही अनत सुखमे ले जानेवाला उत्कृष्ट मार्गदर्शक है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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