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________________ १७वॉ वर्ष शिक्षापाठ ५३ महावीरशासन अभी जो शासन प्रवर्तमान है वह श्रमण भगवान महावीरका प्रणीत किया हुआ है । भगवान महावीरको निर्वाण पधारे २४१४ वर्ष हो गये। मगध देशके क्षत्रियकुण्ड नगरमे त्रिशलादेवो त्रियाणीकी कोखसे सिद्धार्थ राजासे भगवान महावीर जन्मे थे। महावीर भगवानके बडे भाईका नाम नन्दिवर्धन था। महावीर भगवानकी स्त्रीका नाम यशोदा था। ये तीस वर्ष गृहस्थाश्रममे रहे। एकातिक विहारमे साढे बारह वर्ष एक पक्ष, तपादिक सम्यक् आचारसे इन्होने अशेष घनघाती कर्मोको जलाकर भस्मीभूत किया; और अनुपमेय केवलज्ञान तथा केवलदर्शन ऋजुवालिका नदीके किनारे प्राप्त किया। कुल लगभग ७२ वर्षको आयु भोगकर सब कर्मोको भस्मीभूत करके सिद्धस्वरूपको प्राप्त किया। वर्तमान चौवीसीके ये अतिम जिनेश्वर थे। __इनका यह धर्मतीर्थ प्रवर्तमान है। यह २१००० वर्ष अर्थात् पंचम कालको पूर्णता तक प्रवर्तमान रहेगा, ऐसा भगवतीसूत्रमे प्रवचन है। यह काल दस अपवादोसे युक्त होनेसे इस धर्मतीर्थपर अनेक विपत्तियाँ आ गयी हैं, आती है और प्रवचनके अनुसार आयेंगी भी सही। ___ जैन समुदायमे परस्पर मतभेद बहुत पड़ गये है । परस्पर निंदाग्रथोंसे जजाल मॉड वैठे हैं । मध्यस्थ पुरुष विवेक-विचारसे मतमतातरमे न पड़ते हुए जैनशिक्षाके मूल तत्त्व पर आते है, उत्तम शीलवान मुनियोपर भक्ति रखते है, और सत्य एकाग्रतासे अपने आत्माका दमन करते है। समय समयपर शासन कुछ सामान्य प्रकाशमे आता है, परन्तु कालप्रभावके कारण वह यथेष्ट प्रफुल्लित नही हो पाता। _ 'वंक जडा य पच्छिमा' ऐसा उत्तराध्ययनसूत्रमे वचन है, इसका भावार्थ यह है कि अतिम तीर्थंकर (महावीरस्वामो) के शिष्य वक्र एव जड़ होगे, और उनकी सत्यताके विपयमे किसीको कुछ बोलने जैसा नही रहता । हम कहाँ तत्त्वका विचार करते है ? कहाँ उत्तम शीलका विचार करते हैं ? नियमित समय धर्ममे कहाँ व्यतीत करते है ? धर्मतीर्थके उदयके लिये कहाँ ध्यान रखते हैं ? कहाँ लगनसे धर्मतत्त्वकी खोज करते हैं ? श्रावककुलमे जन्मे इसलिये श्रावक, यह बात हमे भावको दृष्टि से मान्य नही करनी चाहिये, इसके लिये आवश्यक आचार, ज्ञान, खोज अथवा इनमेसे कोई विशेष लक्षण जिसमे हो उसे श्रावक मानें तो वह यथायोग्य है। अनेक प्रकारकी द्रव्यादिक सामान्य दया श्रावकके घर जन्म लेती है और वह उसका पालन भी करता है, यह बात प्रशसा करने योग्य है, परन्तु तत्त्वको कोई विरले ही जानते हैं, जाननेकी अपेक्षा अधिक शका करनेवाले अर्घदग्ध भी हैं, जानकर अहकार करनेवाले भी हैं, परन्तु जानकर तत्त्वके कॉटेमे तोलनेवाले कोई विरले ही है। परपर आम्नायसे केवल, मन पर्यय और परमावधिज्ञानका विच्छेद हो गया । दृष्टिवादका विच्छेद हो गया, सिद्धातके बहुतसे भागका विच्छेद हो गया, मात्र थोड़े रहे हुए भागपर सामान्य समझसे शका करना योग्य नहीं है। जा शका हो उसे विशेप जानकारसे पूछना चाहिये। वहाँसे मनमाना उत्तर न मिले तो भी जिन-वचनकी श्रद्धा चलविचल नहीं करनी चाहिये। अनेकात शैलीके स्वरूपको विरले जानते हैं। भगवानके कथनरूप मणिके घरमे कई पामर प्राणी दोषरूपी छिद्रको खोजनेका मथन करके अघोगतिजनक कर्म बाँधते है । हरी शाकभाजीके वदलेमे उसे सुखाकर उपयोगमे लेनेकी बात किसने और किस विचारसे ढूंढ निकाली होगी ? यह विषय बहुत बड़ा है । इस सवधमे यहाँ कुछ कहना योग्य नही है। सक्षेपमे कहना यह है कि १. मोक्षमालाकी प्रथमावृत्ति वीर सवत् २४१४ अर्थात् विक्रम सवत् १९४४ मे छपी थी।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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