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________________ १७वों वर्ष शिक्षापाठ ५० प्रसाद धर्मका अनादर, उन्माद, आलस्य और कषाय ये सब प्रमादके लक्षण है। भगवानने उत्तराध्ययनसूत्रमे गौतमसे कहा-“हे गौतम । मनुष्यकी आयु कुशकी अनीपर पड़े हुए जलके बिन्दु जैसी है। जैसे उस बिंदुके गिरनेमे देर नही लगती, वैसे इस मनुष्यकी आयुके बीत जानेमे देर नही लगती।" इस बोधके काव्यमे चौथी पक्ति स्मरणमे अवश्य रखने योग्य है । 'समय गोयम मा पमायए।' इस पवित्र वाक्यके दो अर्थ होते है। एक तो यह कि हे गौतम | समय अर्थात् अवसर पाकर प्रमाद नही करना, और दूसरा यह कि निमेषोन्मेषमे बीतते हुए कालका असख्यातवाँ भाग जो समय कहलाता है उतने वक्तका भी प्रमाद नही करना । क्योकि देह क्षणभगुर है। कालशिकारी सिरपर धनुषबाण चढाकर खड़ा है। उसने शिकारको लिया अथवा लेगा यह दुविधा हो रही है। वहाँ प्रमादसे धर्मकर्तव्यका करना रह जायेगा। अति विचक्षण पुरुष ससारकी सर्वोपाधिका त्याग करके अहोरात्र धर्ममे सावधान होते हैं, पलका भी प्रमाद नही करते। विचक्षण पुरुष अहोरात्रके थोडे भागको भो निरन्तर धर्मकर्तव्यमे बिताते है, और अवसर अवसरपर धर्मकर्तव्य करते रहते है। परन्तु मूढ पुरुष निद्रा, आहार, मौज-शौक और विकथा एवं रागरगमे आयु व्यतीत कर डालते है। इसके परिणाममे वे अधोगतिको प्राप्त करते हैं। यथासम्भव यत्ना और उपयोगसे धर्मको सिद्ध करना योग्य है। साठ घड़ीके अहोरात्रमे बीस घडी तो हम निद्रामे बिता देते हैं। बाकीकी चालीस घडी उपाधि, गपशप और बेकार घूमने-फिरनेमे गुजार देते हैं । इसकी अपेक्षा साठ घडीके समयमेसे दो चार घडी विशुद्ध धर्मकर्तव्यके लिये उपयोगमे लें तो यह आसानीसे हो सकता है। इसका परिणाम भी कैसा सुन्दर हो ? पल एक अमूल्य वस्तु है ।' चक्रवर्ती भी यदि एक पल पाने के लिये अपनी सारी ऋद्धि दे दे तो भी वह उसे पा नही सकता । एक पल व्यर्थ खोनेसे एक भव हार जाने जैसा है, यह तात्त्विक दृष्टिसे सिद्ध है । शिक्षापाठ ५१ : विवेक किसे कहते हैं ? लघु शिष्य-भगवन् । आप हमे स्थान-स्थानपर कहते आये हैं कि विवेक महान श्रेयस्कर है। विवेक अन्धकारमे पडे हुए आत्माको पहचाननेका दीपक है। विवेकसे धर्म टिकता है । जहाँ विवेक नही वहाँ धर्म नही, तो विवेक किसे कहते हैं ? यह हमे कहिये । गुरु-आयुष्मानो | सत्यासत्यको अपने-अपने स्वरूपसे समझना, इसका नाम विवेक है। लघु शिष्य--सत्यको सत्य और असत्यको असत्य कहना तो सभी समझते हैं। तब महाराज ! वे धर्मके मूलको पा गये ऐसा कहा जा सकता है ? गुरु-तुम जो बात कहते हो उसका एक दृष्टात भी तो दो। लघु शिष्य-हम स्वय कडवेको कड़वा ही कहते है, मधुरको मधुर कहते हैं, जहरको जहर और अमृतको अमृत कहते हैं। गुरु-आयुष्मानो | ये सब द्रव्य पदार्थ हैं। परन्तु आत्माको कोनसी कटुता और कोनसी मधुरता, कौनसा विप और कौनसा अमृत है इन भावपदार्थोको इससे क्या परीक्षा हो सकती है ? लघु शिष्य-भगवन् | इस ओर तो हमारा लक्ष्य भी नही है। गुरु-तब यही समझना है कि ज्ञानदर्शनरूप आत्माके सत्य भावपदार्थको अज्ञान और अदर्शनरूप असत् वस्तुने घेर लिया है। इसमे इतनी अधिक मिश्रता हो गई है कि परीक्षा करना अति अति दुष्कर है। आत्माने ससारके सुख अनन्त वार भोगे फिर भी उसमेसे अभी तक मोह दूर नहीं हुआ और उसे अमृत जैसा माना यह अविवेक है, क्योकि ससार कडवा है, कड़वे विपाकको देता है। इसी प्रकार
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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