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________________ ९४ श्रीमद राजचन्द्र दूसरा कोई आदमी नही था । दिन प्रतिदिन पारस्परिक बातचीतका सबध बढा, बढकर हास्य-विनोदरूपमे परिणत हुआ, यो होते होते दोनो प्रेमपाशमे बँध गये । कपिल उससे लुभाया । एकात बहुत अनिष्ट है 11 "वह विद्या प्राप्त करना भूल गया । गृहस्थकी ओरसे मिलने वाले सीधेसे दोनोका मुश्किलसे निर्वाह होता था, परन्तु कपडेलत्ते की तकलीफ हुई । कपिलने गृहस्थाश्रम बसा लेने जैसा कर डाला | चाहे जैसा होने पर भी लघुकर्मी जीव होनेसे उसे ससार के प्रपचकी विशेष जानकारी भी नही थी । इसलिये वह बेचारा यह जानता भी न था कि पैसा कैसे पैदा करना । चचल स्त्रीने उसे रास्ता बताया कि व्याकुल हासे कुछ नही होगा, परतु उपायसे सिद्धि है । इस गाँवके राजाका ऐसा नियम है कि सबेरे पहले जा कर जो ब्राह्मण आशीर्वाद दे उमे वह दो माशा सोना देता है । वहाँ यदि जा सको और प्रथम आशीर्वाद दे सको तो वह दो माशा सोना मिले । कपिलने यह बात मान ली । आठ दिन तक धक्के खाये परन्तु समय बीत जानेके बाद पहुँचनेसे कुछ हाथ नही आता था । इसलिये उसने एक दिन निश्चय किया कि यदि मैं चौकमे सोऊँ तो सावधानी रखकर उठा जायगा । फिर वह चौकमे सोया । आधी रात बीतने पर चद्रका उदय हुआ । कपिल प्रभात समीप समझकर मुट्ठियाँ बाँधकर आशीर्वाद देनेके लिये दौडते हुए जाने लगा । रक्षपालने उसे चोर जानकर पकड लिया । लेने के देने पड गये । प्रभात होने पर रक्षपालने उसे ले जाकर राजाके समक्ष खडा किया। कपिल बेसुध सा खडा रहा, राजाको उसमे चोरके लक्षण दिखाई नही दिये । इसलिये उससे सारा वृत्तात पूछा | चंद्रके प्रकाशको सूर्य के समान माननेवालेकी भद्रिकतापर राजाको दया आयी । उसकी दरिद्रता दूर करनेकी राजाकी इच्छा हुई, इसलिये कपिलसे कहा, “आशीर्वाद देनेके लिये यदि तुझे इतनी झझट खडी हो गई है तो अब तू यथेष्ट माँग ले, मे तुझे दूँगा ।" कपिल थोडी देर मूढ जैसा रहा । इससे राजाने कहा, "क्यो विप्र । कुछ माँगते नही हो ?" कपिलने उत्तर दिया, “मेरा मन अभी स्थिर नही हुआ है, इसलिये क्या माँगें यह नही सूझता ।" राजाने सामनेके बागमे जाकर वहाँ बैठकर स्वस्थतापूर्वक विचार करके कपिलको मॉगनेके लिये कहा । इसलिये कपिल उस बागमे जाकर विचार करने बैठा । शिक्षापाठ ४८ : कपिलमुनि - भाग ३ दो माशा सोना लेनेकी जिसकी इच्छा थी, वह कपिल अब तृष्णातरगमे बहने लगा । पाँच मुहरें माँगनेकी इच्छा की, तो वहां विचार आया कि पाँचसे कुछ पूरा होनेवाला नही है । इसलिये पच्चीस मुहरें माँगें । यह विचार भी बदला । पच्चीस मुहरोंसे कही सारा वर्ष नही निकलेगा, इसलिये सौ मुहरें माँग लूँ। वहाँ फिर विचार बदला । सौ मुहरोसे दो वर्ष कट जायेंगे, वैभव भोगकर फिर दुःखका दुःख, इसलिये एक हजार मुहरोकी याचना करना ठीक है; परन्तु एक हजार मुहरोंसे, बाल-बच्चोके दो चार खर्च आ जायें, या ऐसा कुछ हो तो पूरा भी क्या हो इसलिये दस हजार मुहरें माँग लूँ कि जिससे जीवनपर्यत भी चिन्ता न रहे । वहाँ फिर इच्छा बदली। दस हजार मुहरें खत्म हो जायेगी तो फिर पूँजीहीन होकर रहना पडेगा | इसलिये एक लाख मुहरोकी माँग करूँ कि जिसके ब्याज मे सारा वैभव भोगूँ, परन्तु जीव । क्षाधिपति तो बहुतसे हैं, इनमे में नामाकित कहाँसे हो पाऊँगा ? इसलिये करोड़ मुहरें माँग लूँ कि जिससे में महान श्रीमान कहा जाऊं । फिर रंग बदला । महती श्रीमत्तासे भी घरमे सत्ता नही कहलायेगी, इसलिये राजाका आधा राज्य माँगूं । परन्तु यदि आधा राज्य माँगूँगा तो भी जायेगा; और फिर में उसका याचक भी माना जाऊँगा । इसलिये माँगूँ तो पूरा तरह वह तृष्णामेवा, परन्तु वह था तुच्छ ससारी, इसलिये फिरसे पीछे लौटा। कृतघ्नता किसलिये करनी पड़े कि जो मुझे इच्छानुसार देनेकों तत्पर हुआ राजा मेरे तुल्य गिना राज्य ही माँग लूँ । इस भले जीव । मुझे ऐसी उसीका राज्य ले लेना और
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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