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________________ १७वाँ वर्ष ते त्रिशलातनये मन चितवी, ज्ञान, विवेक, विचार वधारु ; नित्य विशोध करी नव तत्त्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चारं । संशयबीज ऊगे नही अन्दर, जे जिनना कथनो अवधारु, राज्य, सदा मुज ए ज मनोरथ, धार, थशे अपवर्ग उतार ॥२॥ ९३ शिक्षापाठ ४६ कपिलमुनि - भाग १ कौशाम्बी नामकी एक नगरी थी । वहाँके राजदरबारमे राज्यका आभूषणरूप काश्यप नामका एक शास्त्री रहता था । उसकी स्त्रीका नाम श्रीदेवी था । उसके पेटसे कपिल नामका एक पुत्र जन्मा था । जब वह पद्रह वर्षका हुआ तब उसके पिताका स्वर्गवास हो गया । कपिल लाडप्यार मे पला होनेसे विशेष विद्वत्ताको प्राप्त नही हुआ था, इसलिये उसके पिताका स्थान किसी दूसरे विद्वानको मिला । काश्यप शास्त्री जो पूँजो कमाकर गये थे, उसे कमानेमे अशक्त कपिलने खाकर पूरी कर दी । एक दिन श्रीदेवी घरके दरवाजेमे खडी थी कि इतनेमे दो-चार नौकरो सहित अपने पतिकी शास्त्रीय पदवीको प्राप्त विद्वान जाता हुआ उसके देखनेमे आया । बहुत मानसे जाते हुए उस शास्त्रीको देखकर श्रीदेवीको अपनी पूर्वस्थितिका स्मरण हो आया । "जब मेरे पति इस पदवीपर थे तब मैं कैसा सुख भोगती थी । यह मेरा सुख तो गया, परन्तु मेरा पुत्र भी पूरा पढा ही नही ।" इस प्रकार विचारमे डोलते डोलते उसकी आँखो मेसे टपाटप आँसू गिरने लगे। इतनेमे घूमता- घूमता कपिल वहाँ आ पहुँचा । श्रीदेवीको रोती हुई देखकर उसका कारण पूछा । कपिलके बहुत आग्रहसे श्रीदेवीने जो था वह कह बताया। फिर कपिल बोला, " देख माँ | मै बुद्धिशाली हूँ, परन्तु मेरो बुद्धिका उपयोग जैसा चाहिये वैसा नही हो सका । इसलिये विद्याके बिना मैंने यह पदवी प्राप्त नही की । तू जहाँ कहे वहाँ जाकर अब मै यथाशक्ति विद्या सिद्ध करूँ।” श्रीदेवीने खेदपूर्वक कहा, "यह तुझसे नही हो सकेगा, नही तो आर्यावर्तको सीमापर स्थित श्रावस्ती नगरीमे इन्द्रदत्त नामका तेरे पिताका मित्र रहता है, वह अनेक विद्यार्थियोको विद्यादान देता है, यदि वहाँ जा सके तो अभीष्ट सिद्धि अवश्य होगी ।" एक दो दिन रुक कर सज्ज होकर 'अस्तु' कह कर कपिलजीने रास्ता पकडा । अवधि बीतने पर कपिल श्रावस्तीमे शास्त्रीजीके घर आ पहुँचा । प्रणाम करके अपना इतिहास कह सुनाया । शास्त्रीजीने मित्रपुत्रको विद्यादान देनेके लिये बहुत आनन्द प्रदर्शित किया । परन्तु कपिलके पास कोई पूंजी न थी कि उसमेसे वह खाये और अभ्यास कर सके, इसलिये उसे नगरमे भिक्षा माँगनेके लिये जाना पडता था । माँगते माँगते दोपहर हो जाती थी, फिर रसोई बनाता और खाता कि इतनेमे सध्याका थोडा समय रहता था, इसलिये वह कुछ भी अभ्यास नही कर सकता था । पण्डितजीने उसका कारण पूछा तो कपिलने सब कह सुनाया । पण्डितजी उसे एक गृहस्थके पास ले गये और उस गृहस्थने कपिलपर अनुकपा करके एक विधवा ब्राह्मणीके घर ऐसी व्यवस्था कर दी कि उसे हमेशा भोजन मिलता रहे, जिससे कपिलको यह एक चिता कम हुई । शिक्षापाठ ४७. कपिलमुनि - भाग २ यह छोटो चिन्ता कम हुई, वहाँ दूसरी बडी झझट खडी हुई । भद्रिक कपिल अब जवान हो गया था, और जिसके यहाँ वह खाने जाता था वह विधवा स्त्रो भी जवान थी । उसके साथ उसके घरमे उन त्रिशलातनयका मनमें चिन्तन करके ज्ञान, विवेक और विचारको बढ़ाऊँ, नित्य नव तत्त्वोका विशोधन करके अनेक प्रकारकै उत्तम बोघवचन मुखसे कहूँ । जिनभगवान के जो कथन है उनका अवधारण करूँ ताकि मनमें सशयबीजका उदय न हो । राजचन्द्र कहते हैं कि मेरा सदा यही मनोरथ हैं, इसे धारण कर मोक्षपयिक बनुं ॥२॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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