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________________ १७ वर्ष उसीको भ्रष्ट करना ? यथार्थ दृष्टिसे तो इसमे मेरी ही भ्रष्टता है । इसलिये आधा राज्य माँगना, परन्तु यह उपाधि भी मुझे नही चाहिये । तब पैसेकी उपाधि भी कहाँ कम है ? इसलिये करोड लाख छोडकर सौ दो सौ मुहरें ही मांग लूँ । जीव । सौ दो सौ मुहरें अभी मिलेगी तो फिर विषय- वैभवमे वक्त चला जायेगा, और विद्याभ्यास भी धरा रहेगा, इसलिये अभी तो पाँच मुहरें हो ले जाऊँ, पीछेको बात पीछे । अरे । पाँच मुहरोकी भी अभी कुछ जरूरत नही है, मात्र दो माशा सोना लेने आया था वही मांग लूँ । जीव | यह तो हद हो गई । तृष्णासमुद्रमे तूने बहुत गोते खाये । सम्पूर्ण राज्य माँगते हुए भी जो तृष्णा नही बुझती थी, मात्र संतोष एव विवेकसे उसे घटाया तो घट गई। यह राजा यदि चक्रवर्ती होता तो फिर मैं इससे विशेष क्या माँग सकता था ? और जब तक विशेष न मिलता तब तक मेरी तृष्णा शात भी न होती, जब तक तृष्णा शात न होती तब तक मे सुखी भी न होता । इतनेसे भी मेरी तृष्णा दूर न हो तो फिर दो माशेसे कहाँसे दूर होगी ? उसका आत्मा सुलटे भावमे आया और वह बोला, "अब मुझे दो माशे सोनेका भी कुछ काम नही, दो माशेसे बढकर में किस हद तक पहुँचा । सुख तो सतोषमे ही है । यह तृष्णा ससारवृक्षका बीज है। इसकी हे जीव । तुझे क्या आवश्यकता है ? विद्या ग्रहण करते हुए तू विषयमे पड गया, विषयमे पड़नेसे इस उपाधिमे पडा, उपाधिके कारण तू अनत तृष्णासमुद्रकी तरगोमे पडा । इस प्रकार एक उपाधिसे इस संसारमे अनत उपाधियाँ सहनी पडती है । इसलिये इसका त्याग करना उचित है । सत्य संतोष जैसा निरुपाधि सुख एक भी नही है ।" यो विचार करते करते तृष्णाको शान्त करनेसे उस कपिलके अनेक आवरण क्षय हो गये । उसका अन्त करण प्रफुल्लित और बहुत विवेकशील हो गया । विवेक ही विवेकमे उत्तम ज्ञानसे वह स्वात्माका विचार कर सका । अपूर्वं श्रेणिपर चढकर वह केवलज्ञानको प्राप्त हुआ ऐसा कहा जाता है । ९५ तृष्णा कैसी कनिष्ठ वस्तु है । ज्ञानी ऐसा कहते है कि तृष्णा आकाश जैसी अनत है । निरतर वह नवयौवना रहती है। कुछ चाह जितना मिला कि वह चाहको बढा देती है । सतोष ही कल्पवृक्ष है, और यही मात्र मनोवाछाको पूर्ण करता है । शिक्षापाठ ४९ : तृष्णाकी विचित्रता मनहर छद ( एक गरीवकी वढती हुई तृष्णा ) *हती दोनताई त्यारे ताकी पटेलाई अने, मळी पटेलाई त्यारे ताकी छे शेठाईने; सांपडी शेठाई त्यारे ताकी मंत्रिताई अने, आवी मत्रिताई त्यारे ताकी नृपताईने; मळी नृपताई त्यारे ताकी देवताई अने, दोठी देवताई त्यारे ताकी शंकराईने; अहो ! राजचंद्र मानो मानो शंकराई मळी, वघे तृषनाई तोय जाय न मराईने ॥१॥ * भावार्थ- - जव गरीब था तब मुखिया होनेकी इच्छा हुई, जव मुखिया हो गया तब नगरसेठ होनेकी इच्छा हुई, जब नगरसेठ हुआ तब मन्त्री होनेकी इच्छा हुई, जव मन्त्री हुआ वव राजा होनेकी इच्छा हुई, जब राजा हुआ तव देव होनेकी इच्छा हुई, जब देव हुआ तब शकर - महादेव होनेकी इच्छा हुई । राजचद्र कहते हैं कि यह आश्चर्य है कि यदि वह शंकर हो जाये तो भी उसकी तृष्णा वढती ही रहे, मरे नही ॥१॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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