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________________ [१४] अहो श्री सत्पुरुषके वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम । श्रीमद् राजचन्द्र ऐसे विरल स्वरूपनिष्ठ तत्त्ववेत्ताओमेसे एक है । श्रीमद् राजचन्द्र यानि अध्यात्मगगनमे झिलमिलाती हुई अद्भुत ज्ञानज्योति । मात्र भारतकी ही नहीं, अपितु विश्वकी एक विरल विभूति । अमूल्य आत्मज्ञानरूप दिव्यज्योतिके जाज्वल्यमान प्रकाशसे, पूर्वमहापुरुषो द्वारा प्रकाशित सनातन मोक्षमार्गका उद्योतकर भारतकी पुनीत पृथ्वीको विभूषित कर इस अवनीतलको पावन करनेवाले परम ज्ञानावतार, ज्ञाननिधान, ज्ञानभास्कर, ज्ञानमूर्ति । शास्त्रके ज्ञाता तथा उपदेशक तो हमे अनेक मिल जायेंगे परन्तु जिनका जीवन ही सत्शास्त्रका प्रतीक हो ऐसी विभूति प्राप्त होना दुर्लभ है। श्रीमद् राजचन्द्रके पास तो जाज्वल्यमान आत्मज्ञानमय उज्ज्वल जीवनका अतरग प्रकाश था और इसीलिये इन्हे अद्भुत अमृतवाणीकी सहज स्फुरणा थी। ____"काका साहेब कालेलकरने श्रीमद्के लिये 'प्रयोगवीर' ऐसा सूचक अर्थभित शब्द प्रयोग किया है सो सर्वथा यथार्थ है । श्रीमद् सचमुचें प्रयोगवीर ही थे। प्रयोगसिद्ध समयसारका दर्शन करना हो अथवा परमात्मप्रकाशका दर्शन करना हो, प्रयोगसिद्ध समाधिशतकका दर्शन करना हो अथवा प्रशमरतिका दर्शन करना हो, प्रयोगसिद्ध योगदृष्टिका दर्शन करना हो अथवा आत्मसिद्धिका दर्शन करना हो तो 'श्रीमद' को देख लीजिये। उन उन समयसार आदि शास्त्रोमे वणित भावोका जीता-जागता अवलम्बन उदाहरण चाहिये तो देख लोजिये श्रीमद्का जीवनवृत्त । श्रीमद् ऐसे प्रत्यक्ष प्रगट परम प्रयोगसिद्ध आत्मसिद्धिको प्राप्त हुए पुरुष हैं, इसीलिये उनके द्वारा रचित आत्मसिद्धि आदिमे इतना अपूर्व सामर्थ्य दिखाई देता है ।" . ., -श्रीमद् राजचन्द्र जीवनरेखा । भारतको विश्वविख्यातविभूति राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी लिखते है "मेरे जीवनको श्रीमद् राजचन्द्रने मुख्यतया प्रभावित किया है। महात्मा टोल्स्टोय तथा रस्किनकी अपेक्षा भी श्रीमद्ने मेरे जीवन पर गहरा असर किया है। बहुत बार कह और लिख गया हूँ कि मैने बहुतोके जीवनमेंसे बहुत कुछ लिया है। परन्तु सबसे अधिक किसीके जीवनमेसे मैंने ग्रहण किया हो तो वह कवि (श्रीमद् राजचन्द्र) के जीवनमेसे है । • " ।' श्रीमद् राजचन्द्र असाधारण व्यक्ति थे। उनके लेख अनुभवबिदुस्वरूप है। उन्हे पढनेवाले, विचारनेवाले और तदनुसार आचरण करनेवालेको मोक्ष सुलभ होता है। उसके कषाय मन्द पड़ते है, उसे ससारमे उदासीनता रहती है और वह देह-मोह छोडकर आत्मार्थी हो जाता है। इस परसे पाठक देखेगा कि श्रीमद्के लेख अधिकारीके लिये है। सभी पाठक उसमेसे रस नही ले सकते । टीकाकारको उसमे टीकाका कारण मिलेगा, परन्तुं श्रद्धावान तो उसमेसे रस ही लूटेगा । रनके लेखोमे सत् हो टपक रहा है ऐसा मुझे हमेशा भास होता है। उन्होने अपना ज्ञान दिखानेके लिये एक भी अक्षर नही लिखा । लेखकका हेतु पाठकको अपने आत्मानंदमे साझीदार बनानेका था। जिसे आत्मक्लेश दूर करना है, जो अपना कर्तव्य जाननेको उत्सुक है उसे श्रीमद्के लेखोमेसे बहुत कुछ मिल जायेगा ऐसा मुझे विश्वास है, फिर भले ही वह हिन्दु हो या अन्य धर्मी । . जो वैराग्य ( अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ? ) इन पद्योमे झलझला रहा है वह मैने उनके दो वर्षके गाढ परिचयमे प्रतिक्षण उनमे देखा है। उनके लेखोमे एक असाधारणता यह है कि उन्होने स्वयं जो अनुभव किया वही लिखा है। उसमे कही भी कृत्रिमता नहीं है.।. दूसरे पर प्रभाव डालनेके लिये एक पक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नही देखा।'. . . . . .
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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